पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/८६४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

गीता, मनुवाद और टिप्पणी-१८मध्याय । ८२५ अष्टादशोध्यायः। अर्जुन उवाच । संन्यासस्य महाबाहो तत्त्वमिच्छामि वेदितुम् । लिये बुद्धि की जिस समता की आवश्यकता होती है, उसे कैसे प्राप्त करना चाहिये, और इस कर्मयोग का आचरण करते हुए अन्त में उसी के द्वारा मोक्ष कैसे प्रास होता है। बुद्धि की इस समता को प्राप्त करने के लिये इन्द्रियों का निग्रह करके पूर्ण तया यह जान लेना आवश्यक है कि एक ही परमेश्वर सव प्राणियों में भरा पुमा है इसके अतिरिक्त और दूसरा मार्ग नहीं है। अतः इन्द्रिय निग्रह का विवेचन छठवें अध्याय में किया गया है । फिर सातवें अध्याय से सत्रहवें अध्याय वक थतनाया गया है कि कर्मयोग का प्राचरण करते हुए ही परमेश्वर का ज्ञान कैसे प्राला होता है, और वह ज्ञान क्या है। सातवें और आठवें भध्याय में घर-अक्षर अपंवा न्यक-भव्यफ के ज्ञान-विज्ञान का विवरण किया गया है। नवें अध्याय से बारहवें अध्याय तक इस भाभिमाय का वर्णन किया गया है कि यद्यपि परमेश्वर के व्यक स्वरूप की अपेक्षा व्यक स्वरूप श्रेष्ठ है, तो भी इस बुद्धि को न डिगने दे कि पर- मेघर एक ही है और व्यक खरूप की ही उपासना प्रत्यक्ष ज्ञान देनेवाली अतएव सब के लिये सुलभ है । अनन्तर तेरहवें अध्याय में क्षेत्र-क्षेत्र का विचार किया गया है कि चार-अक्षर के विवेक में जिसे अध्यक्त कहते हैं वही मनुष्य के शरीर में मन्तरात्मा है । इसके पश्चात चौदहवें अध्याय से ले कर सत्रहवें अध्याय तक, चार अध्यायों में, वर-अक्षर-विज्ञान के अन्तर्गत इस विषय का विस्तारसहित विचार किया गया है कि एक ही अव्यक्त से प्रकृति के गुणों के कारण जगत् में विविध स्वभावों के मनुष्य जैसे उपजते हैं अथवा और अनेक प्रकार का विस्तार कैसे होता है एवं ज्ञान-विज्ञान का निरूपण समाल किया गया है । तथापि स्थान- स्थान पर अर्जुन को यही उपदेश है कि तू कर्म कर, और यही कर्मयोग-प्रधान' भायु विताने का मार्ग सब में उत्तम माना गया है कि जिसमें शुद्ध अन्तःकरण से परमेश्वर की भक्ति करके 'परमेश्वरार्पण-पूर्वक स्वधर्म के अनुसार केवल कर्तव्य समझ कर मरण पर्यन्त कर्म करते रहने का उपदेश है । इस प्रकार ज्ञानमूलक और भक्तिप्रधान कर्मयोग का साझापाङ्ग विवेचन कर चुकने पर अठारहवें अध्याय में उसी धर्म का पसंहार करके अर्जुन को स्वेच्छा से युद्ध करने के लिये प्रवृत्त किया है। गीता के इस मार्ग में-कि जो गीता में सर्वोत्तम कहा गया गया है-अर्जुन से यह नहीं कहा गया कि 'तू चतुर्थ आश्रम को स्वकिार करके संन्यासी हो ना ।। हॉ, यह अवश्य कहा है कि इस मार्ग से पाचरण करनेवाला मनुष्य नित्य संन्यासी' है (गी. ५.३)। अतएव अब अर्जुन का प्रश्न है कि चतुर्ष प्राश्रम-- रूपी संन्यास ले कर किसी समय सब कर्मों को सचमुच त्याग देने का तत्व इस गी.र.१०४