पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/८७

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५२ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । प्रज्ञावादांश्च भाषसे " - अर्थात जिस बात का शोक नहीं करना चाहिये उसी का तो तु शोक कर रहा है और साथ साथ ब्रह्मज्ञान की भी बड़ी बड़ी बाते छाँट रहा है कह कर अर्जुन का कुछ थोड़ा सा उपहास किया और फिर उसको कर्म के ज्ञान का उपदेश दिया । अर्जुन की शंका कुछ निराधार नहीं थी । गत प्रकरण में हमने यह दिखलाया है कि अच्छे अच्छे पंडितों को भी कभी कभी " क्या करना चाहिये और क्या नहीं करना चाहिये ? " यह प्रश्न चक्कर में डाल देता है। परन्तु कर्म-अकर्म की चिन्ता में अनेक अड़चनें आती हैं इसलिये कर्म को छोड़ देना उचित नहीं है, विचारवान् पुरुषों को ऐसी युक्ति अर्थात् 'योग' का स्वीकार करना चाहिये जिससे सांसारिक कर्मों का लोप तो होने न पावे और कर्माचरण करनेवाला किसी पाप या बंधन में भी न फंसे यह कह कर श्रीकृष्ण ने अर्जुन को पहले यही उपदेश दिया है " तस्माद्योगाय युज्यस्व " अर्थात तू भी इसी युक्ति का स्वीकार कर । यही योग ' कर्मयोगशास्त्र है । और, जवकि यह वात प्रगट है कि अर्जुन पर आया हुआ संकट कुछ लोक-विलक्षण या अनोखा नहीं था. -ऐसे अनेक छोटे बड़े संकट संसार में सभी लोगों पर पाया करते हैं-तव तो यह बात आवश्यक है कि इस कर्मयोगशास्त्र का जो विवेचन भगवद्गीता में किया गया है उसे हर एक मनुष्य सीखे । किसी शास्त्र के प्रतिपादन में कुछ मुख्य मुख्य और गूढ़ अर्थ को प्रगट करनेवाले शब्दों का प्रयोग किया जाता है। अतएव उनके सरल अर्थ को पहले जान लेना चाहिये और यह भी देख लेना चाहिये कि उस शास्त्र के प्रति- पादन की मूल शैली कैसी है, नहीं तो फिर उसके समझने में कई प्रकार की आप- त्तियाँ और वाधाएँ होती हैं । इसलिये कर्मयोगशास्त्र के कुछ मुख्य शब्दों के अर्थ की परीक्षा यहाँ पर की जाती है। सब से पहला शब्द 'कर्म' है। 'कर्म' शब्द 'कृ' धातु से बना है, उसका अर्थ करना, व्यापार, हलचल ' होता है, और इसी सामान्य अर्थ में गीता में उसका उपयोग हुआ है, अर्थात् यही अर्थ गीता में विवक्षित है । ऐसा कहने का कारण यही है कि मीमांसाशास्त्र में और अन्य स्थानों पर भी, इस शब्द के जो संकुचित अर्थ दिये गये हैं उनके कारण पाठकों के मन में कुछ भ्रम उत्पन्न न होने पावे | किसी भी धर्म को लीजिये, उसमें ईश्वर-प्राप्ति के लिये कुछ न कुछ कर्म करने को बतलाया ही रहता है । प्राचीन वैदिक धर्म के अनु- सार देखा जाय तो यज्ञ-याग ही वह कर्म है जिससे ईश्वर की प्राप्ति होती है। वैदिक ग्रंथों में यज्ञ-याग की विधि बताई गई है। परन्तु इसके विषय में कहीं कहीं परस्परविरोधी वचन भी पाये जाते हैं। अतएव उनकी एकता और मेल दिखलाने के ही लिये जैमिनि के पूर्व मीमांसाशास्त्र का प्रचार होने लगा । जैमिनि के मता- नुसार वैदिक और श्रौत यज्ञ-याग करना ही प्रधान और प्राचीन धर्म है । मनुष्य जो कुछ करता है वह सव यज्ञ के लिये करता है। यदि उसे धन कमाना है तो यज्ञ के लिये और धान्य संग्रह करना है तो यज्ञ ही के लिये (मभा. शां- २६. २५)।