पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/८७८

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} गीता, अनुवाद और टिप्पणी-१८ अध्याय । परिणामे विषमिव तत्सुखं राजसं स्मृतम् ॥ ३८ ॥ यदन्ने चानुबंधे च सुख मोहनमात्मनः । निद्रालस्यप्रमादोत्थ तत्तामसमुदाहृतम् ॥ ३९ ॥ TF न तदस्ति पृथिव्यां वा दिवि देवेषु वा पुनः । सत्त्वं प्रकृतिजैर्मुक्तं यदेभिः स्यात्त्रिभिर्गुणैः ।। ४० ॥ विषयों के संयोग से होनेवाला (अर्थात् प्राधिभौतिक) सुख राजस कहा जाता है कि शो पहले तो अमृत के समान है। पर अन्त में विष सा रहता है। (३९) और को प्रारम्भ में एवं अनुयन्ध अर्थात् परिणाम में भी मनुष्य को मोह में फंसाता है भार जो निद्रा. मालस्य तथा प्रमाद अर्थात् कर्तव्य की भून से उपजता है उसे तामस सुख कहते हैं। i [३७ वें श्लोक में प्रारमयुद्धि का अर्थ हमने प्रात्मनिष्ठ बुद्धि किया है परन्तु प्रात्म' का अर्थ अपना' करके उसी पद का अर्थ 'अपनी धुद्धि' भी हो सकेगा। क्योंकि पहने (६. २१ ) कहा गया है कि अत्यन्त सुख केवल बुद्धि से ही प्राप' और 'अतीन्द्रिय ' होता है। परन्तु अर्थ कोई भी क्यों न किया जाय, तात्पर्य एक ही है। कहा तो है कि सच्चा और नित्य सुख इन्द्रियो- पभोग में नहीं है, किन्तु वह केवल बुद्धिग्राम है परन्तु जब विचार करते हैं कि धुद्धि को सवा और अत्यन्त सुख प्राप्त होने के लिये क्या करना पड़ता है तय गीता के छठे अध्याय से (६.२१, २२) प्रगट होता है कि यह परमावधि का सुख प्रात्मनिष्ठ चुद्धि हुप बिना प्राप्त नहीं होता । 'बुद्धि' एक ऐसी इन्द्रिय है कि वह एक ओर से तो निगुणात्मक प्रकृति के विस्तार की ओर देखती है और दूसरी ओर से उसको मात्मस्वरूपी परनमा का भी बोध हो सकता है कि जो इस प्रकृति के विस्तार के मूल में अर्थात् प्राणिमात्र में समानता से व्यास है। तात्पर्य यह है कि हन्द्रिय-निग्रह के द्वारा बुद्धि को त्रिगुणात्मक प्रकृति के विस्तार से हटा कर जहाँ अन्तर्मुख सौर श्रात्मनिष्ठ किया और पातञ्जलयोग के द्वारा साधनीय विषय यही है-तहाँ यह बुद्धि प्रसन्न हो जाती है और मनुष्य को सत्य एवं अत्यन्त सुख का अनुभव होने लगता है। गीतारहस्य के ५ वें मकरण (इ. ११५-११७) में आध्यात्मिक सुख की श्रेष्ठता का विवरण किया जा चुका है। अब सामान्यतः यह बतलाते हैं कि जगत् में उक्त निविध भेद ही भरा पड़ा है-] (१०) इस पृथ्वी पर, आशश में अथवा देवताओं में अर्थात् देवलोक में भी ऐसी कोई वस्तु नहीं कि जो प्रकृति के इन तीन गुणों से मुक्त हो। [अठारहवें श्लोक से यहाँ तक ज्ञान, कर्म, हत्ता, बुद्धि, प्रति, और सुख के भेद बतला कर अर्जुन की घाँखों के सामने इस बात का एक चित्र रख दिया है कि लम्पूर्ण जगत् में प्रकृति के गुण-भेद से विचिनता कैसे उत्पन्न होती है।