२. मार्क्सवाद और धर्म १०७ मेल हो जायगा (एक ऐसी सीमा जरूर होती है जो अराजकता तथा अवसरवादको पृथक् करती है । यह ठीक है कि वह सीमा आपेक्षिक है, उसका सकोच विस्तार होता रहता है, और वह बदलती रहती है), मार्क्स- वादीको हमेशा सतर्क रहना चाहिये, ताकि वह अराजकतावादियोके खयाली, जबानी और खोखले कातिवादमे कही फैंस न जाय, या कही ऐसा नहो जाय कि वह टुटपुंजिये बाबुप्रो या उदारतावादी दिमागदारोके भट्टे अवसरवादका शिकार ही हो जाय । ये टुटपुंजिये बाबू या उदार दिमागदार ऐसे होते है कि धर्म-विरोधी संघर्षोंसे भागते और पिंड छुडाते फिरते है और आस्तिकताके साथ उनका समझौता हो जाता है। उन्हे इस बातमे पथदर्शक वर्गसंघर्षका स्वार्थ तो होता नही। किन्तु वे तो हमेशा इसी तुच्छ एव दयाजनक डरसे काँपते रहते है कि कही और लोग रज न हो जायें, हट न जाये या भडक न उठे। वे तो इसीमे बुद्धिमानी समझते है कि खुद भी कायम रहे और दूसरे भी बने रहे। "इस सम्बन्धमे जो भी दूसरे प्रश्न उठते है कि सोशलडेमोक्रेटिक पार्टीके लोग धर्मके बारेमे कौनसा रुख अख्तियार करे उन सबोका निर्णय इसी ऊपर बताये सिद्धान्तके ही आधारपर दिया जाना चाहिये। दृष्टान्त- स्वरूप प्राय ऐसा पूछा जाता है कि पादरी लोग सोशल डेमोक्रेटिक पार्टीके सदस्य बन सकते है या नहीं? इसका उत्तर भी बिना आगा-पीछा किये ही आमतौरसे 'हाँ' दिया जाता है और कहा जाता है कि यूरोपकी ये पार्टियाँ ऐसा ही तो करती है । असलमे यूरोपमे जो यह रीति चल पडी वह सिर्फ इसीलिये नही कि मजदूर आन्दोलनमे मार्क्सके मन्तव्योका प्रयोग किया गया था। बल्कि इसका कारण पश्चिमकी कुछ खास ऐतिहासिक परिस्थितियाँ थी, जो रूसमे नही है। फलत.'हाँ'वाला उत्तर यहाँ' ठीक नही है । हम एक ही साँसमे सबोके लिये यह नहीं कह सकते कि किसी भी हालतमे कोई भी पादरी इस पार्टीका मेम्बर हो नही सकता। लेकिन ?