पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/१४०

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गीता-हृदय ? दर्जे अच्छा है। इसमें शान है, प्रतिष्ठा है, इज्जत है। इससे न सिर्फ लडते और काम करनेवालोका, बल्कि उनके साथियोका भी सर ऊँचा होता है। फिर और चाहिये ही क्या? इससे बढके और हई क्या जव अर्जुन इसी आगा-पीछामे अपने कर्त्तव्यसे विमुख हो रहा था, तो कृष्णने दूसरे अध्यायसे ही शुरू करके अठारहवें तक जानें बीसियो बार उसे ललकारा और कहा कि क्या नाहक मरने-मारनेकी फिक्र नादानो- की तरह कर रहे हो ? तैयार हो जायो, डट जानो, कमर बाँध लो, दृढ सकल्पके साथ लडो। यह नामर्दोकी-सी बातें क्या कर रहे हो? ये बाते तुम्हारे जैसोके लिये मुनासिव नही है, जेबा नही देती है। जरा सुख-दुख वर्दाश्त करनेकी हिम्मत तो करो। इस विश्वासके साथ भिड तो जानो कि जरूर फतह होगी। फिर तो बेडापार ही समझो। ये बातें अक्लमदीकी नही है जो तुम कर रहे हो। तुम धोकेमे पडके आगा. पीछा कर रहे हो, खबरदार ! जरा सुनिये,-"धीरस्तत्र न मुह्यति" (२०१३), "तास्तितिक्षस्व" (२०१४), "तस्माद्युध्यस्व” (२११८), "उभौ तौ न विजानीत" (२०१६), "क घातयति हन्ति कम्” (२०२१), “नानुशोचितुमर्हसि", "न शोचितुमर्हसि" (२।२५-२७, ३०), "का परि- देवना" (२।२८), "न विकम्पितुमर्हसि" (२।३१), "पापमवाप्स्यसि" (२१३३), "उत्तिष्ठ युद्धायकृतनिश्चय" (२०३७), "युद्धाय युज्यस्व" (२।३८), "कुरु कर्माणि" (२०४८), "योगाय युज्यस्व" (२०५०), "नियत कुरु कर्म त्य" (३८), "मुक्तसग समाचर" (३६), कार्य कर्म समाचर" (३।१६), "कर्तुमर्हसि" (३।२०), "युध्यस्व विगतज्वर" (३।३०), "कुरु कर्मव" (४११५), "कृत्वापि न निवध्यते” (४१२२), "उत्तिष्ठ भारत" (४१४२), “योगिन कर्म कुर्वन्ति" (५।११), "कार्य कर्म करोति" (६१), "तस्माद्योगी भव" (६।४६), "युध्य च" (८७), “योगयुक्तो भव" (८।२७),“तत्कुरुष्व मदर्पणम्" (8।२७), "यशो लभस्व" . + .