पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/२२६

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अपना पक्ष २२५ . जिन पदार्थोंको अधिभूत कहा गया उनके सम्वन्धके विवेक, विचार और मथन आदिको ही प्राधिभौतिक नाम दिया गया। इसी तरह देवो या देवताप्रोमे जो भी विभूति, खूबी, चमक, आभा वगैरह जान पडी उसे अधिदेव, अधिदैव या अधिदैवत नाम दिया गया। तत्सम्बन्धी चिन्तन, ध्यान या विवेचन भी आधिदैवत, आधिदैव या आधिदैविक कहा जाने लगा।पीछे तो लोगोने अधिभूत और अधिदैवको एकमे मिलाके सबोके भीतर एक अन्तर्यामी पदार्थको मान लिया, जो सवोको चलाता है, कायम रखता है, व्यवस्थित रखता है। उसी अन्तर्यामीको ब्रह्म या परमात्मा कहने लगे। सवसे बडा होनेके कारण ही उसे ब्रह्म कहना शुरू किया। शरीरके भीतरवाली आत्माको व्यष्टि मानके ब्रह्मको परमात्मा, वडी प्रात्मा या समष्टि अात्मा कहनेकी रीति चल पडी। ऊपर हमने जो कुछ लिखा है वह शुरूसे लेकर आजतककी स्थितिका सक्षिप्त वर्णन है। शुरूसे ही यह हालत तो थी नही । यह परिस्थिति तो क्रमिक विकास होते-होते पैदा हो गई है। जब स्वतत्र रूपसे लोगोका चिन्तन चलता था तो कोई अध्यात्म-विमर्शमे लगे थे, कोई अधिदैव- विचारमे और कोई अधिभूत-विवेचनमे । यह तो सभव न था कि सभी लोग सभी वाते सोच सके। तव तो सभी वाते अधूरी ही रह जाती। कोई भी पूरी न हो पाती, अन्ततक पहुँच पाती नहीं। और ज्ञानकी वृद्विके लिये यह अधूरापन सर्वथा अवाञ्छनीय है, त्याज्य है । यही कारण है कि अलग-अलग सोचनेवाले अपने-अपने कामोमे लीन थे। यही कारण है कि जवतक सब लोग गोष्ठी या परस्पर विमर्ग नही कर लेते थे तबतक अनेक स्वतत्र निश्चयोपर पहुँचते थे। यह वात स्वाभाविक थी । श्वेताश्वतर उपनिपदके पहले ही दो मत्रो "ब्रह्मवादिनो वदन्ति, किं कारण ब्रह्म कुत स्म जाता" आदि, तथा "काल स्वभावो नियतिर्यदृच्छा" आदिमे यही मतभेद और विचारभेद बताया गया १५ .