पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/२२७

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२२६ गीता-हृदय है । साथ ही सभी सोचनेवालोको ब्रह्मवादी ही कहा है, न कि किसीको भी कमबेश । उसीके छठे अध्यायके पहले मत्रमें भी इसी प्रकारके विचार-विभेदका उल्लेख "स्वभावमेके कवयो वदन्ति" आदिके द्वारा किया है। वहाँ सवोको कवि या सूक्ष्मदर्शी कहा है। छान्दोग्यके छठे अध्यायके दूसरे खडके पहले ही मत्रमें "सदेव सोम्येदमग्न आसीदेकमेवाद्वितीय तद्धक प्राहुरसदेवेदमग्र आसीदेकमेवाद्वितीयम्" आदिके जरिये यही विचार विभिन्नता बताई गई है और अगले "कुतस्तु खलु" मत्रमे इसीका खडन-मडन लिखा गया है । फलत विभिन्न विचारोके प्रवाह होने जरूरी थे। वैसी हालतमे जो परम कल्याण या मोक्षकी आकाक्षा रखता हो उसके दिल में यह बात स्वभावत उठ सकती है कि कही धोका और गडबड न हो जाय, कही ऐसा रास्तान पकड ले कि या तो भटक जायें या परीशानी में पड जायें, कही ऐसे मार्गमे न पडे जो अन्ततक पहुंचानेवाला न होके मुख्य मार्गसे जुटनेवाली पगडडी या छोटी-मोटी सडक हो, राजमार्गके अलावे कही दूसरे ही मार्गके पथिक न बन जायें, कही ऐसा न हो कि मार्ग तो सही हो, मगर उसके लिये जरूरी सामान सम्पादन करनेवाले उपाय या रास्ते छूट जाये और सारा मामला अन्तमे खटाईमे पड जाय । जो सभी विचारपद्धतियो एव चिन्तनमार्गोको बखूबी नहीं जानते और न उनके लक्ष्य स्थानोका ही पता रखते है उनके भीतर ऐसी जिज्ञासाका पैदा होना अनिवार्य है। जिन्हें सभी विचार प्रवाहोका समन्वय या एकीकरण विदित न हो और जो यह समझ सके न हो कि पुष्पदन्तके शब्दोमे रुचि या प्रवृत्तिके अनुसार अनेक मार्गोको पकडनेवाले अन्तमें एक ही लक्ष्य- तक-परमात्मातक-पहुंचते है- "रुचीना वैचित्र्यादृजुकुटिलनानापथ जुषाम् , नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव", वे तो घवराके सवाल करेंगे ही कि "परमात्माका ध्यान तो हम करेगे सही, लेकिन अध्यात्म,