पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/२६

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5 गीता-हृदय सम्बन्धमे लागू है। त्याज्य कामोकी भी समझी जानी चाहिये । गीता मतगे हिना यहिमा और अहिंमा हिंसा हो सकती है, हो जाती है। यही बात भी गाँव है। गीता तो इस सम्बन्ध में यह मानती है कि कारने- वालोकी भावना, धारणा, निश्चय, मानसिक मात्प पोर दिएकी पुकार उन कर्मोके वारेमे कैसी है, वे किन विचार और गयालगे उन कामोको करते है, उनके मानसिक पटलपर कौनमा स्थान किम तरल्या उन कामों को मिला है, उनके और उनके फनोके सम्बन्धमे उन्हें ममता और ग्रामरिक्त है या नहीं वे उन कर्मोसे और उनके फनोग अपने दिल और दिमागके जरिये लिपटे है या नहीं, इत्यादि वातोका फैनना ही, उन्तीकी नियत ही उन कामोको कुरा या भना, उचित या अनुचित बनाती है । श्रद्धा, दिल और दिमाग जिसे गोतामे श्रद्धा कहा गया है वह भी इन्हीके भीतर पा जाती है और कर्मोको तुरा या भला बनानेमे बद्धाका बहुत बड़ा हाथ माना जाता है। यही वात "श्रद्धामयोऽय पुरुष (१७१३) आदि में गीता ने कही है । "यस्य नाहकृतो भाव" (१८।१७) प्रादि वचन भी यही बताते है। दिलके भीतर किसी कामके प्रति जो प्रेम और विश्वान होता है उन दोनोको मिलाके ही श्रद्धा कही जाती है । श्रद्धा इस बात को सूचित करती है कि दिमाग दिलकी मातहती मे-उसके नीचे-या गया है। विद्वत्तामे ठीक इसके उलटा दिलको ही दिमागकी मातहती करनी होती है। हाँ, पात्मज्ञान, आत्मदर्शन, तत्त्वज्ञान, ब्रह्मज्ञान, स्थितप्रज्ञता, गुणा- तीतता और ज्ञानस्वरुप भक्ति, (चतुर्थभक्ति) की दशामे दिल तथा दिमाग दोनो ही हिल मिल जाते है । इसे ही ब्राह्मीस्थिति, समदर्शन ऐक्यज्ञान आदि नामोसे भी पुकारा गया है । जव सिर्फ हृदय या दिलका निरावाध प्रसार होता है और उसका मददगार दिमाग नहीं होता तो --