पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/२९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

कर्मके भेद . शुद्धिके लिये, पवित्रताके लिये किये जाते है। जैसे देह, कपड़े-लत्ते और घरवारको कर्म या क्रियाके द्वारा ही निर्मल बनाते है, साफ सुथरा करते है, झाडू, साबुन, पानी वगैरहके जरिये इनकी मैल हटाके इन्हे स्वच्छ, पवित्र और शुद्ध करते है; ठीक वैसे ही दिल, दिमागको भी निर्मल किया जाता है कर्मोके ही जरिये । आत्मज्ञान और तत्त्वज्ञानसे घरको गन्दगी तो हटती नही। वह तो झाडू और पानीसे धोये पोछे बिना नही हट सकती। मनकी मैल और गन्दगी भी उसी प्रकार कर्मोके हो द्वारा मिटती है और वह शुद्ध एव निर्मल होता है । जिस प्रकार पहली सीढी वालोको गीता ने "शरीरयात्रार्थ" कर्म 'शरीर यात्रापि च ते' (३८) में कहा है ? उसी प्रकार इन्हे 'आत्मशुद्धये' या "आत्मशुद्धयर्थ" कर्म 'सङ्ग त्यक्त्वऽऽत्मशुद्धये' (५।११) आदिमे कहा है। मनको मैल भी समझ लेनेकी चीज है। देह या कपडे-लत्ते जैसा ठोस और स्थूल पदार्थ तो मन या हृदय है नही। वह तो सूक्ष्म-अत्यन्त सूक्ष्म-है और अनुमानसे ही उसका अस्तित्व माना जाता है । इसलिये उसमें वाहरी या स्थूल मल (मैल) की सभावना नहीं है । यह मैल तो उसके पास पहुँच ही नही सकती। यही कारण है कि मनकी चचलता, उसका किसी भी पदार्थमे न टिक सकना, राग, द्वेष और भय आदि ही मैल कहे जाते है और इन्हीको दूर करनेकी-कम करनेकी-जरूरत होती है। क्रिया या कर्मके प्रभावसे ही मन इन दुर्गुणोसे छुट्टी पाता है और धीरे-धीरे इनको कमी होने लगती है। ये सोलहो आना मिटते तो है आत्मदर्शनके बाद ही। मगर इनकी प्रचडता और इनका वेग जाता रहता है। जैसे जगली खूखार और घरेलू पालतू जानवरोके स्वभाव- मे फर्क होता है वैसी ही दशा मनकी हो जाती है और उसकी खूखारी जाती रहती है। वह पालतूसा बन जाता है, बनने लगता है। दिल या हृदयकी जो दुर्बलता होती है और सकटोके आते ही जो पस्ती आ जाया