पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/३२१

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6 "जायते वर्णसंकरः" ३२५ और दुनियामे निर्दोष तो कुछ भी नही है---लेकिन ऐसा करनेमे उनका एक खास मतलब था। वे यह मानते थे और आजके अन्वेषण तथा विज्ञानसे भी यह बात सिद्ध हो चुकी है कि जो काम पुश्त दर पुश्तसे होता रह जाय वह एक प्रकारका स्वभाव बन जाता है । फलत पीछे चलके जो लोग उस वशमे पैदा होते है वह उस काममे क्रमश ज्यादे से ज्यादा विशेषज्ञ होते जाते है। बढ़ईका पेशा जिन वशोमे होता हो उनके बच्चे स्वभावत उस काममे कुशल होते है । वे उसके सबन्धमें नये-नये आ- विष्कार आसानीसे कर लेते है । कर सकते है। यही बात दूसरे पेशो, दूसरे कामोकी भी है। यही कारण है कि वर्णो के लिये जो व्यवस्था बनी उसमे विवाह-शादी और खान-पानकी बडी सख्ती रखी गई। असल चीज है रक्तकी शुद्धि जिसका मतलब यही है कि यदि उसी पेशे या कामके माँ-बाप होगे और उनमें जरा भी गडबडी न होगी, जैसीकि पशु-पक्षियोमे पाई जाती है कि एक ही ढगके पशु-पक्षियोके जोडे लगते है, तो उनसे जो बच्चा होगा उसका सस्कार उस पेशेके बारेमे और भी तेज होगा। वह उस काम मे साधा- रणत और भी कुशल होगा--कमसे कम उसकी कुशलताका सामान तैयार तो होगा ही। विभिन्न वर्गों की परस्पर विवाह-शादी को सख्तीसे रोकनेका यही अभिप्राय था। जब कही उस रोकमे कुछ ढिलाई भी की तो उसे ठीक न कहके वासना युक्त शादी-कामतस्तु प्रवृत्ताना-कह दी। आखिर ब्राह्मण पिता और क्षत्रिया माता या विपरीत माता-पितासे जो सन्तान होगी वह किसका सस्कार रखेगी ? दोनोके तो सस्कार दो ढगके ठहरे जो मेल खाते नही। अब अगर परस्पर विरोध हो गया तो दोनो ही एक दूसरेको खत्म ही कर देगे। खान-पान वगैरहकी सख्ती भी इसी सस्कार की ही मजबूती और रक्षासे ताल्लुक रखती है और स्वास्थ्यसे भी। उस स्वास्थ्यका आखिरी असर भी सस्कारोकी ही मजबूतीपर पडता है ।