पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/३६१

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गीता-हृदय गीताको अध्याय-संगति गीताका अर्थ समझनेमे एक जरूरी बात यह है कि हम उसमे प्रति- पादित विपयोको ठोक-ठोक समझे और उनका क्रम जाने । इसीका सम्बन्ध ज्ञान और विज्ञानमे है जिसका उल्लेख गौता (७।२-६।१)मे दो वार स्पष्ट पाया है। इस दृष्टिसे हम गोताके अध्यायोको देखे तो ठीक हो । पहला अध्याय तो भूमिका या उपोद्घात ही है। वह गीतोपदेश- का प्रसग तैयार करता है जो अर्जुनके विषादके ही रूपमें है । यही मवसे उत्तम भूमिका है भी। इसके करते जितना सुन्दर प्रसग तैयार हुआ है उतना और तरहसे शायद ही होता। दूसरे अध्यायका विषय है ज्ञान या सास्य । इसमें उमीकी मुख्यता है। . तीसरेमे कर्मका मवाल उठाके उमीपर विचार और उसीका विवेचन होनेके कारण वही उसका विषय है। चौथमे ज्ञानका कर्मोके सन्याससे क्या ताल्लुक है यही बात आई है। इसीलिये उसका विपय ज्ञान और कर्म-सन्यास है । स्वभावत , जैसे दूसरे अध्यायमे ज्ञानके प्रसगसे कर्मके आ जानेके कारण ही तीसरेमें उसका विवेचन हुअा है, उसी तरह चौथेमें सन्यासके आ जाने से पांचवेमे उसीका विवेचन है, वही उसका मुख्य विषय है। छठेमे अभ्यास या ध्यानका विवरण है। यह ज्ञानके लिये अनिवार्य रूपसे आवश्यक है । इसे ही पातजल योग भी कहते है। चौथेके ज्ञान और कर्म-सन्यासके मेलको ही ब्रह्मयज्ञ भी कहा है और वहीं उसका मुख्य अर्थ शकरने लिखा है। ठीक ही है । पाँचवेके मुख्य विषय-सन्यास- को उनने प्रकृतिगर्भ नाम दिया है। बाहरी झमेलोसे पिंड छुडाके किस प्रकार प्राकृतिक रूपमे ब्रह्मानन्दमे मस्त हो जाते है यहीं वात उसमे सुन्दर ढगसे लिखी है । सन्यासीके सम्बन्धमें प्राचीन ग्रन्थोमें लिखा