पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/३८४

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प्रवेशिका जिनने ज्यादा गौर नही किया है, या जो ध्यानसे गीता नही पढते, लेकिन इतना जानते है कि गीता महाभारतमें ही लिखी है और उसी बडी पोथीमेसे अलग करके इसका पठन-पाठन तथा प्रचार होता है, वह आमतौरसे ऐसा ही समझते है कि महाभारतके युद्धके प्रारभ होनेके पहले ही उसका प्रसग आनेके कारण वह महाभारतकी पोथीमे भी उद्योग पर्वके बाद ही या भीष्मपर्वके शुरू होनेके पहले ही लिखी गई होगी। यदि और नही तो इतना तो खयाल उन्हे अवश्य होता होगा कि गीतोपदेशको सुननेके बाद ही लड़ाईकी बात धृतराष्ट्रको मालूम हुई होगी और 'भीष्म आदिको मृत्युकी भी। मगर दरअसल बात ऐसी है नही। यह सही है कि युद्धारम्भके पहले ही कृष्ण और अर्जुनके बीच गीतावाला सम्वाद हुआ, जिसे आजकी भाषामे एक तरहका चखचुख भी कह सकते है। यदि देखा जाय तो गीताके दूसरे अध्यायके शुरूमे, गीताके असली उपदेशके पहले, जो बाते कृष्ण एव अर्जुनके बीच हो गई है वह चखचुख जैसी ही है । कृष्ण कहते है कि भई, ऐन लडाईके समयपर ही यह बडी बुरी कमजोरी तुममे कहाँसे राम, राम, इसे दूर करो और फौरन कमर बाँधके तैयार हो जाओ। नामर्दकी तरह कमर तोडके यह बैठ क्या गये हो ? इसपर अर्जुन अपने इस कामके, इस मनोवृत्तिके समर्थनके लिये दलीले करता और कहता है कि पूजनीय गुरु जनोके चरणोपर चन्दन, पुष्पादि चढानेके बदले उनके कलेजेमे तीर बेधु ? यह नहीं होनेका । इन्हे मारके इन्हीके खूनसे रँगे राजपाट जहन्नुम जायें। मै इन्हें हर्गिज नही मारनेका । यही या गई? .