पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/६०६

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६१६ गीता-हृदय इहैव तैजितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः । निर्दोष हि सम ब्रह्म तस्माद्ब्रह्मणि ते स्थिताः ॥१९॥ पण्डित लोग विद्या एव सदाचरणसे युक्त ब्राह्मण, गौ, हाथी, कुत्ते और कुत्ता खा जानेवाले प्राणीमें (केवल) सम नामक वस्तुको ही देखते है-समदर्शी होते है। (इस तरह) जिनका मन इस साम्यावस्थामें डॅट गया--जम गया-वह तो जीते ही जी सृष्टि-जन्म-मरण-पर विजय पा जाते है-इससे छुटकारा पा जाते है। क्योकि निर्विकार एकरस ब्रह्म ही सम है । इसलिये वे ब्रह्मनिष्ठ हो जाते है। १८॥१६॥ न प्रहृष्यत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम् । स्थिरबुद्धिरसमूढो ब्रह्मविद्ब्रह्मणि स्थितः ॥२०॥ (इसीलिये) स्थिर बुद्धिवाला, हर तरहके मोहसे रहित (जो) ब्रह्मनिष्ठ आत्मज्ञानी है (वह) न तो प्रिय पदार्थ मिलनेसे खुशीके मारे लोट-पोट होता है और न अप्रिय मिलनेसे घबराता है--सर पीटता है ।२०। बाह्यस्पर्शेष्वसक्तात्मा विदत्यात्मनि यत्सुखम् । स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षय्यमश्नुते ॥२१॥ भौतिक पदार्थोंमे (इस तरह) मन न रमनेपर ब्रह्ममें ही जिसका मन जम जाता है वह पुरुष जब आत्मामे ही सुखका अनुभव करने लगता है (तो) अक्षय सुखको प्राप्त कर लेता है ।२१॥ ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते। आद्यन्तवन्त. कौन्तेय न तेषु रमते बुधः ॥२२॥ क्योकि भौतिक पदार्थोंसे जो आनन्द मिलता है वह (तो) आने- जानेवाला-अस्थायी होनेसे (अन्तमें) दुखका ही कारण बन जाता है। इसीलिये समझदार लोग उसमें कभी नही फंसते हे कौन्तेय ॥२२॥ शक्नोतीहव यः सोढुं प्राक्शरीरविमोक्षणात् । कामक्रोधोद्भवं वेगं स युक्त स सुखी नरः ॥२३॥