पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/६१३

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छठाँ अध्याय ६२३ श्रीभगवानुवाच अनाश्रितः कर्मफलं कार्य कर्म करोति यः। स संन्यासी च योगी च न निरग्निर्नचाक्रियः ॥१॥ श्रीभगवान बोले--जो कोई भी कर्मों और उनके .फलोकी पर्वा न करके (केवल) कर्त्तव्य समझ उन्हे करता रहता है वही सन्यासी भी है और योगी भी। ( न कि कर्मोके साधन) अग्नि (आदि) को और (खुद) कर्मोको ही छोड देनेवाला ।। यं संन्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पांडव । न ह्यसंन्यस्तसंकल्पो योगी भवति कश्चन ॥२॥ हे पाडव, जिसे सन्यास कहा गया है उसे योग ही जानो। क्योकि जो कोई सभी सकल्पोको त्याग न दे वह योगी हो नहीं सकता है ।२। यहाँ कुछ बाते जान लेनेकी है। इन दोनो श्लोकोमे जो सन्यास और योगको एक कह दिया है वह ठीक वैसा ही है जैसा कि इसी अध्यायमे आगे "त विद्याद्दु खसयोगवियोग योगसज्ञितम्" (६।२३) में वस्तुत वियोगको योग कहा है। सिर्फ इसीलिये यह बात है कि यद्यपि नाम तो उसका योग ही है, तथापि काम उसका उलटा है, वियोग है। क्योकि वह दु खोके सम्बन्धका वियोग कर देता है, दु खोको कभी पासमे फटकने नही देता है। यहाँ भी सन्यास और योग है तो दो चीजे और है परस्पर विपरीत भी। मगर इनका काम मिल जाता है, एक हो जाता है। इसी- लिये नामसे नही, किन्तु कामसे ही, दोनोकी एकता बताई गई है । इसका प्रयोजन कही चुके है कि जनसाधारण कही कर्मोसे विमुख न हो जायँ, इसीलिये कह दिया है कि भई, तुम तो कर्म करते हुए भी सन्यासी ही हो। फिर चिन्ता क्या ? इसीके साथ एक निहायत जरूरी बात भी कर्म करनेवालोके सामने