पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/६५१

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सातवां अध्याय ६६७ पले ये लोग उस परिस्थितिको डाँक सकते नही। फलत इन्ही भौतिक स्थूल पदार्थोंको ही देवी-देवताग्रोके रूपमे भगवान समझके पूजने लगते है। उनका भगवान कोई दूसरा तो होता नही । वैसा निराकार और अविनाशी भगवान तो उनकी नजरोसे अोझल है। वीचमे वह ठगनेवाली एव अनेक युक्ति फैलानेवाली माया जो आगई है और उसीमे वे फैंस गये है। अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धयः । परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम् ॥२४॥ नाहं प्रकाश सर्वस्य योगमायासमावृतः । मूढोऽयं नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम् ॥२५॥ मेरे निर्विकार, सर्वोत्तम एव सबसे वढे-चढे अदृश्य स्वरूपको नासमझ लोग नही जानते । (फलत ) मुझे स्थूल या भौतिक रूप ही मान लेते है । (क्योकि) मै तो अनेक हिकमतवाली मायासे छिपा होनेके कारण सर्व- साधारणको नजरमे आता नही । (इसीलिये) ये मूढ लोग मुझ अजन्मा (और) अविनाशीको ठीक-ठीक समझ पाते नही ।२४॥२५॥ इसपर प्रसगवश फौरन ही यह प्रश्न उठता है कि जब भगवान और जनसाधारणके बीच मायाका बहुरगा पर्दा है और वही भगवानको छिपाये हुए है, जिससे लोग उसे देख नही सकते, तो वह भी लोगोको, इस बाहरी दुनियाको कैसे देख सकेगा? वह पर्दा तो समानरूपसे दोनोकी ही दृष्टि रोकेगा। प्रत्युत जब भगवान मायासे घिरा है, अावृत है, बल्कि समावृत है, अच्छी तरह घिरा है, तब तो उसकी दृष्टि और भी सकुचित होनी चाहिये। विपरीत उसके जनसाधारण तो उसके सिवाय वाकी सभी पदार्थोको वखूवी देख सकते है । क्योकि उनके लिये तो केवल भगवान ही पर्देमे है न ? इसका चटपट उत्तर देके ही आगे बढते है। उत्तर यो है-