पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/६५७

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अाठवाँ अध्याय सातवे अध्यायके अन्तमे जो बाते दो श्लोकोमे कही गई है उनके ही करते अर्जुनको प्रश्न करनेका मौका लग गया और आठवेका श्रीगणेश उसी प्रश्नसे होता है । अर्जुनने क्यो प्रश्न किया और उसका आशय क्या है, आदि बातोपर पूरा प्रकाश, इन श्लोकोकी विस्तृत व्याख्या एव उत्तरका पूर्ण विवेचन पहले ही किया जा चुका है । सारी बाते ठीक-ठीक समझनेके लिये वह विवेचन समझ लेना निहायत जरूरी है। यहाँ इतना ही कह देना है कि अन्तके दो श्लोकोमे जो बाते कही गई है वह शास्त्रप्रसिद्ध है। पुराने दार्शनिक इन्हे बखूबी जानते थे । इतना ही नही । जैसा कि सातवे अध्यायके अन्तमे हमने इन श्लोकोके ही प्रसगमे कह दिया है, ये बातें स्वय सातवें अध्यायमे भी आई है। यह भी ठीक है कि वहाँ उनके प्रसगमे अध्यात्म, अधिभूत आदि शब्द नही आये है । इसीलिये अर्जुनको यह खयाल होना जरूरी था कि यह कौनसी भाषा बोलते और क्या बाते कह रहे है । उसके लिये जैसे यह एकदम निराली चीज थी। इसीके साथ कर्मकी बात भी कुछ खटकी। क्योकि कर्म-अकर्मकी बात बहुत बार वडी सफाईसे कहके चौथे अध्यायमे ही यह भी कह दिया है कि कर्ममे अकर्म तथा अकर्ममे कर्म देखनेवाला ही योगी है और वह सभी कर्म करता है, कर सकता है “स युक्त कृत्स्नकर्मकृत्" (४११८) । फिर यह क्या वला आई कि जरामरणसे छुटकारेके लिये जो लोग यत्न करते है और अधिभूतादिको जानते है वही सभी कर्मोको जानते है ? उसे यह कुछ अजीबसी वात लगी। इसीलिये खटकी भी। ब्रह्मकी वात यद्यपि कोई नई न थी, तथापि ब्राह्मी स्थितिकी जो ४३