पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/७१५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

७३४ गीता-हृदय , विस्तरेणात्मनो योग विभूति च जनार्दन ! भूय कथय तृप्तिर्हि शृण्वतो नास्ति मेऽमृतम् ॥१८॥ हे जनार्दन, अपनी विभूति और योग-दोनो ही–को और भी विस्तारसे कहिये। क्योकि (आपके वचनरूपी) अमृत'मधुर वचनो- को सुनते हुए मुझे तप्ति नही होती है ।१८। अब श्रीकृष्णने समझ लिया कि जरा भी देर करना ठीक नही। क्योकि सब परिस्थिति बनी बनाई मौजूद है। इसलिये चटपट- श्रीभगवानुवाच हन्त ते कथयिष्यामि दिव्या ह्यात्मविभूतयः । प्राधान्यतः कुरुश्रेष्ठ नास्त्यन्तो विस्तरस्य मे ॥१६॥ श्रीभगवानने कहा-हे कुरुश्रेष्ठ, लो अभी-अभी अपनी प्रधान दिव्य विभूतियोको (सक्षेपमें) तुम्हे सुनाये देता हूँ। (क्योकि) मेरी (इन विभूतियोके) विस्तारका अन्त हई नही ।१६। प्रहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः । प्रहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च ॥२०॥ हे गुडाकेश, सब पदार्थोके भीतर हृदय, अन्त करण या सर्ममें- रहनेवाली आत्मा में ही हूँ। पदार्थोंका आदि, मध्य और अन्त भी- उनका सबकुछ-मैं ही हूँ।२०। आदित्यानामहं विष्णुज्योतिषा रविरंशुमान् । मरीचिर्मरुतामस्मि नक्षत्राणामहं शशी ॥२१॥ (वारह) सूर्योमें विष्णु नामक सूर्य मै हूँ, सभी प्रकाशवान् पदार्थोमें किरणवाला सूर्य, (उनचास) पवनोमे मरीचि नामक पवन और (रातमें जगमगानेवाले) तारोमें चन्द्रमा मै हूँ।२१॥