पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/७२३

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ग्यारहवाँ अध्याय जब ? । अर्जुनने दसवे अध्यायमें जो विराट् रूपका विस्तृत विवरण सुना उससे उन्हे ऐसी आतुरता हुई कि उसे जल्दसे जल्द आँखोसे देखनेको लाला- यित हो उठे। चुनचुनके प्राय सभी पदार्थोको भगवानका रूप बताना तो केवल कहनेकी एक रीति है । चमत्कार-युक्त पदार्थों पर ही तो पहले दृष्टि जाती है और एक बार जब उन्हे परमात्माका रूप मान लिया, एक बार उनमे वह भावना हो गई, तब तो आसानीसे सभीमे वही भावना हो सकती है। कहनेका कौशल यही है कि इस बुद्धिमत्तासे बाते बताये कि कुछी बाते कहनेसे काम चल जाय और सुननेवाला बाकियोको खुद- वखुद समझ जाये। कहते है कि किसीने दूसरेसे पुछा कि तुम्हारा क्या नाम है ? उत्तर मिला कि तिनकौडी। फिर प्रश्न हुआ कि बापका जवाब मिला छकौडी। इसके बाद तो पूछनेवालेने स्वयमेव कह दिया कि बस, ज्यादा कहनेका काम नही। अब तो मै खुद तुम्हारे सभी पुरुषो तकके नाम जान गया। क्योकि इसी प्रकार दूना करता चला जाऊंगा। ठीक वही बात यहाँ भी हुई है। जब मिहको भगवान मान लिया, तो शेष पशुओको भगवानसे अलग माननेके लिये कोई दार्शनिक युक्ति रही नही जाती। सभी तो एकसे हाड-मासवाले है। यही बात अन्य पदार्थोमे है। इस प्रकार चुनेचुनाये पदार्थोके नाम लेनेसे ही 'सबोका काम हो गया। यह भी बात है कि आखिर जब आँखोसे प्रत्यक्ष देखनेका मौका आये तो सबोको जुदाजुदा देखना असभव भी है। थोडेसे चने पदार्थोको ही देखते-देखते तो परीशानी हो जायगी। लाखो तरहके पदार्थ जो ठहरे । इसलिये नमूनेके रूपमे जिन्हे दसवेमे गिनाया है, ग्यारहवेमे भी लागू