पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/७५०

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७७२ गीता-हृदय मेरा ध्यान करते हुए मेरी उपासना करते है, मुझीमें अपने चित्तको चिपका देनेवाले ऐसे लोगोका (इस जन्म) मरण रूपी ससार-सागरसे जल्द ही उद्धार कर देता हूँ।६।७। मय्येव मन प्राधत्स्व मयि बुद्धि निवेशय । निवसिष्यसि मय्येव अत ऊवं न सशयः ॥८॥ (इसलिये) मुझीमे मन जोड दे (और) बुद्धिको भी मुझीमे लगा दे। (परिणाम यह होगा कि) इसके-मरनेके~वाद या इतना कर लेनेपर बेशक तुम मुझमे ही निवास करेगा--मेरा ही स्वरूप हो जायगा । - अथ चित्त समाधातु न शक्नोषि मयि स्थिरम् । अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तु धनजय ॥६॥ लेकिन यदि, हे धनजय, मुझमें चित्तको निश्चल रूपसे लगा नही सकता, तो (इस वातके) अभ्यासरूपी उपायसे ही मुझे (क्रमश ) प्राप्त करनेका सकल्प कर ले ।। यहाँ “प्राप्तु इच्छ"-"पानेकी इच्छा कर लें"का ही अभिप्राय हमने "सकल्प कर ले", लिखा है और यही उचित भी है । इच्छा मात्रसे तो कुछ होता जाता नहीं, जबतक सकल्प न कर ले । अभ्यासेऽप्यसमोऽसि मत्कर्मपरमो भव । मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन् सिद्धिमवाप्स्यसि ॥१०॥ (और अगर) अभ्यास भी न कर सके तो मदर्थ कर्म करनेमे ही लग जा। (क्योकि) मदर्थ कर्मोको करते हुए भी (धीरे-धीरे) इष्टसिद्धि प्राप्त कर ही लेगा ।१०॥ अर्थतदप्यशक्तोऽसि कर्तुं मद्योगमाश्रितः। सर्वकर्मफलत्यागं ततः कुरु यतात्मवान् ॥११॥