पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/८१४

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८३४ गीता-हृदय . प्राप्तिके ही लिये जरूरी है, किन्तु उसके बाद भी आत्मज्ञानी पुरुपके व्यवहारमे वह कसौटीका काम करता है और इस प्रकार समाज-हित-साधन- में काम आता है। उसी प्रकार विधानात्मक पहलू भी ऐसा पारस है कि हजारो लोहेको सोना बना देता है । उसके हासिल हो जानेसे मनुष्य- के व्यावहारिक जीवनकी हजारो विधिनिषेघवाली दिक्कते हट जाती है और क्या करे, क्या न करे, इस तरहके उठनेवाले रोजके पचडोंसे पिंड छूट जाता है। इस उधेडबुनकी जरूरत रही नही जाती है । इस दृप्टिसे यह भी व्यावहारिक जीवनकी कसौटी ही है। मगर दोनोकी उपयोगिता- का रूप दो होनेसे दोनोकी महत्ता भी दो है। जिस प्रकार ये खुद निषेधात्मक और विधानात्मक है, उसी प्रकार इनकी उपयोगिता भी है। इस प्रकार इन दो अध्यायोका गीताधर्मकी दृष्टिसे बहुत अधिक महत्त्व है। यह वात हम पहले ही बखूबी समझा चुके है। इन दो वातोमे भी निषेधात्मक पहलू अपेक्षाकृत सरल है। किसी चीजसे बचना उतना कठिन नहीं है जितना किसी वातका सम्पादन करना । यह वात भी है कि निषेधात्मक पहलू कूडा करकट हटाके सफाई कर देता है। उसके बाद विधानात्मक वस्तुके लाने या कायम रखने में गन्दगियोका खतरा नही रहनेसे आसानी हो जाती है। जब तक प्यालेको घोधाके निर्मल न बनायें उसमे दूध रखा कैसे जायगा? और उस रखनेके मानी क्या होगे ? वह गन्दा और जहरीला न बन जायगा? यही कारण है कि सोलहवे अध्यायमे निषेधात्मक पहलूका ही विवेचन-विश्लेषण किया गया है । इसके पूरा हो जाने पर ही सत्रहवेमे विधानात्मक पहलूकी बातें विस्तारके साथ लिखी गई है। इस तरह गीतोपदेशकी प्रगति स्वाभाविक ढगसे हो सकी है। इसकी इस अपूर्व लोकप्रियताका यह भी एक कारण है। इस दृष्टिसे यदि हम सोलहवे अध्यायके प्रारभमें कही गई दैवी सम्प-