पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/८२३

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सोलहवाँ अध्याय ८४३ जालसे अच्छी तरह घिरे और विषयमोगमे डूबे (ऐसे लोग) गन्दे नरकोमे जा डूबते है ।१३।१४११५।१६। आत्मसंभाविताः स्तब्धा धनमानमदान्विताः । यजन्ते नामयज्ञस्ते दंभेनाविधिपूर्वकम् ॥१७॥ खुद अपनी तारीफके पुल वाँधनेवाले, उजड्ड तथा धनके अभिमानके नशेमे चूर वे लोग दिखाने के लिये नाममात्रके यज्ञ भी कर डालते है ।१७। अहंकारं बलं दपं कामं क्रोधं च संश्रिताः । मामात्मपरदेहेषु प्रद्विषन्तोऽभ्यसूयकाः ॥१८॥ तानहं द्विषतः क्रूरान्संसारेषु नराधमान् । क्षिपाम्यजत्रमशुभानासुरीष्वेव योनिषु ॥१९॥ अहकार, बल, मनमानी घरजानी, काम तथा क्रोधके वशीभूत, अपने एव दूसरे शरीरोमे आत्माके रूपमें रहनेवाले मुझसे बुरी तरह जलनेवाले और हर चीजके निन्दक (ही ये होते हैं)। इस तरह जलने या द्वेप करने- वाले, उन निर्दय एव नापाक नराधमोको मै स ससारकी आसुरी योनियोमे ही निरन्तर डाला करता हूँ।१८।१६। प्रासुरी योनिमापन्ना मूढा जन्मनि जन्मनि । मामप्राप्यैव कौन्तेय ततो यांत्यधमां गतिम् ॥२०॥ हे कौन्तेय, (ये) मूढ लोग लगातार (अनेक) जन्मोमे आसुरी या गन्दी और पतित योनियोमे ही जन्म लेनेके कारण मुझ (आत्मा-परमात्मा)- को तो जान पाते ही नहीं। फलत उनकी और भी अधम गति होती है ।२०। त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः । कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत् ॥२१॥