पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/८२४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

८४४ गीता-हृदय एतैविमुक्तः कौन्तेय तमोद्वारैस्त्रिभिर्नरः । आचरत्यात्मनः श्रेयस्ततो याति परा गतिम् ॥२२॥ श्रात्माको चौपट करनेवाले नर्कके यही तीन द्वार है--काम, क्रोध, लोभ । इसलिये इन तीनोंसे पिंड (जरूर) छुडा लें। हे कौन्तेय, नर्क रूपी अन्धकारके इन तीन द्वारोंसे जिसका पल्ला छूटा है वही अपने कल्याणका काम कर सकता है और फलस्वरूप परमगति प्राप्त करता है ।२१।२२। पहले भी “कामात्क्रोधोऽभिजायते" (२०६२) तथा "कामएप" (३।३७-४३) मे काम और क्रोधका इसी सिलसिलेमे पूरा वर्णन आ चुका है । वहाँ दोनोको एक ही कहा है । यहाँ भी वही बात है। केवल दोनोके साथ तीसरा-लोभ-जुट गया है। मगर यह भी दोनोंसे जुदा नहीं है। सच पूछिये तो कामके क्रोध रूपमें परिणत हो जानेके लिये वीचमें ही यह लोभ पाता है और दोनोको जोडनेवाली सीढीका काम करता है। काम या इच्छाकी तीव्रता ही तो लोभ है, जिसके चलते पदार्थको अपने पाससे जुदा न होने देने और न मिले हुएको चाहे जैसे हो प्राप्त कर लेनेका खयाल भी आ जुटता है । फिर तो जरा भी बाधा या देर होनेसे वही काम जलते क्रोधका रूप खामखा बन जाता है । हमने इन बातोका वहुत कुछ विवेचन पहले किया है। अवतक जो कुछ निरूपण किया गया है उससे पूरा पता चल गया है कि ज्ञानमार्गमे और समाजके सचालनमे असली खतरे कौन-कौनसे है उनका नग्न रूप पिछले सोलह श्लोकोमे आ गया है, जिससे किसी भी सहृदय पुरुषका हृदय एकाएक सिहर जा सकता है। फलत. वह इनसे पूरी तौरसे सजग हो सकता है । मगर यह निरूपण एक प्रकारका जगलसा हो गया है। इसलिये जनसाधारण उसमें आसानीसे भटक जा सकते है। इसीलिये और आसानी तथा सरलताके भी लिहाजसे, जैसे सृष्टिके पॅवारे और विस्तारको अन्तमे तीन गुणोके रूपमे ही बता दिया गया है