पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/८२५

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सोलहवां अध्याय ८४५ वैसे ही, इन सारी जगल जैसी विस्तृत बातोका भी काम, क्रोध, लोभ इन तीनके ही रूपमे यहाँ निचोड़ दे दिया है। अब इन्हे आसानीसे समझा और पकडा जा सकता है। ये सबोकी समझमे पाते भी है। इसीलिये सवोंसे बचनेकी अपेक्षा इन्ही तीनसे बचनेकी बात आसानीसे कहके काम भी पूरा कर दिया है। इससे साफ है कि जब सबोकी जडमें यही है, जैसा कि "ध्यायतो विषयान्” (२०६२) मे साफ बता दिया है, तो फिर सबोसे ही क्यो न बचेगे? अव प्रश्न होता है कि इनसे बचे कैसे ? पिंड कैसे छुड़ाये ? आखिर कोई प्रणाली या तरीका तो चाहिये ही। योही तो कुछ होगा नहीं। इसीका उत्तर यो है- यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः । न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम् ।२३। तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थिती। ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहार्ह सि ॥२४॥ जो शास्त्रीय प्रणालीको छोडके अपने मनसे चलेगा उसका न तो कार्य ही सिद्ध होगा, न उसे आराम ही मिलेगा और न परमगति ही। इसीलिये तुम्हे उचित है कि कर्त्तव्याकर्त्तव्यको पक्की व्यवस्था करनेमे शास्त्रको ही प्रमाण मानो। शास्त्रविधानको जानकर ही तुम्हें इस दुनियामे सब कुछ करना होगा ।२३।२४। इसपर पूरा प्रकाश पहले ही डाला जा चुका है। इति० दैवासुरसंपद्विभागयोगो नाम षोडशोऽध्यायः ॥१६॥ श्रीम० जो श्रीकृष्ण और अर्जुनका सवाद है उसका दैवासुर-सपत्ति- विभागयोग नामक सोलहवाँ अध्याय यही है ।