पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/८३२

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८५२ गीता-हृदय तप करनेकी बात कही गई है। इन्द्रियो या रक्तमासादिकी कृशता उनकी कमजोरी और दुर्बलता ही है। मगर आत्माकी कृशता है उसका पतन; उमकी विवेकशून्यता। यदि कर्शयन्त की जगह कर्षयन्त पाठ हो तो भी नीचे खीचना या ले जाना-घसीटना-ही उसका अर्थ है और कोई फर्क नहीं है। इसीलिये श्रद्धाका पता वहाँ नही रहता। ऐसे कर्मोंकी गिनती गीता करती ही नहीं । अन्तवाले (२८वे) श्लोकमें आमतौरसे इन्हें दूषित ही ठहराया है। यहाँ भी उसीका नमूना बताया गया है । परन्तु यह वात योही प्रसगसे आ गई है । प्रसग तो त्रिविध गुणमूलक पदार्थोंका ही है । इसीलिये आगेके श्लोकोमे वही तीन प्रकारका वर्णन यो लिखा है-- पाहारस्त्वपि सर्वस्य त्रिविधो भवति प्रियः । यज्ञस्तपस्तथा दान तेषा भेदमिम शृणु ॥७॥ सभीका प्रिय आहार भी तीन प्रकारका होता है (और) यज्ञ, तथा दान भी। इनके ये प्रकार सुन लो ।७। आयुःसत्त्वबलारोग्यसुखप्रीतिविवर्धना। रस्या स्निग्धा. स्थिरा हृद्या आहाराः सात्त्विकप्रियाः ॥८॥ कट्वम्ललवणात्युष्णतीक्ष्णरुक्षविदाहिन । पाहारा राजसस्येष्टा दुःखशोकामयप्रदाः ॥६॥ यातयाम गतरस पूति पर्युषित च यत् । उच्छिष्टमपि चामेध्य भोजन तामसप्रियम् ॥१०॥ आयु, सत्त्वगुण, बल, नीरोगता, सुख एव प्रसन्नताको बढानेवाले, रसीले, चिकने या स्नेहयुक्त, कुछ देरमें पचनेवाले और चित्तको पसन्द आनेवाले आहार सात्त्विक जनोंके प्रिय होते है। कडवे, खट्टे, नमकीन, ज्यादा गर्म, चरपरे, रूखे तथा जलन पैदा करनेवाले आहार राजस लोगोके प्रिय होते तथा दुख, गोक, बीमारी पैदा करते है। जिसे बने एक पहर । -