पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/८६५

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अठारहवाँ अध्याय ८८५ . आ गये। उनके धर्म, अर्थ और कामका परस्पर सम्बन्ध है-तीनो एक- दूसरेसे मिले रहते है। फलत यदि एक भी हट जाये तो तीनो गडबडीमे पड जाये। यह भी खास बात है कि उनके धर्म और अर्थको एक साथ जोडनेकी बात यह काम ही करता है। किन्तु सात्त्विक धृतिमे यह बात नहीं है। उसमे तो काम आसक्तिके रूपमे प्रबल न होके मामूली इच्छाके ही रूपमे नजर आता है, जिससे हरेक क्रियामे प्रगति मिलती है। अब रही तामसी धृतिकी बात । ऐमी धृतिको धृति कहना उसका निरादर ही माना जाना चाहिये । फिर भी हरेक पदार्थ त्रिगुणात्मक ही है । इसलिये लाचारी है । असलमे तामसी धृतिवालोके मन, प्राण और इन्द्रियोपर अपना काबू नही रहनेसे उनकी क्रियाय मनमानी चलती-बिगडती रहती है । ऐसे लोगोमे हिम्मत तो होती ही नही । इसी- लिये डर, अफसोस, मनहूसीमे पड़े रहते है। एक तरहका नशा भी उनपर हर घडी चढा रहता है । आलस्यका तो पूछिये मत । इसीलिये नीदका अर्थ हमने आलस्य किया है । स्वानका अर्थ गाढी नीद तो सभव नही। जगके उठ बैठनेको उनका जी नही चाहता । इसीलिये ऐसे लोग कुछ भी कर पाते नही। सुखं त्विदानी त्रिविधं शृणु मे भरतर्षभ । अभ्यासाद्रमते यत्र दुःखान्तं च निगच्छति ॥३६॥ हे भरतश्रेष्ठ, अब तीन प्रकारके सुखोको भी मुझसे सुन लो, (उन्हीं सुखोको), जिनके बार र-बारके मिलनेसे उनमे मन रम जाता है और दुख भूल जाते है ।३६। जिस ढगसे इस श्लोकमे शब्द दिये गये है उनसे भी यही स्पष्ट हो जाता है कि सभी कामोका आखिरी ध्येय यह सुख ही है। इसीलिये कहते है कि अब आखिरमे उसे भी जरा सुन लो। नही तो वात अधूरी ही रह जायगी। इसके बाद उत्तरार्द्धमे उसी सुखका सर्वसामान्य या साधारण, .