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गुप्त धन
 



शिवदास ने लज्जित होकर कहा––मैं अभी चला जाता हूँ। आप नाराज न हों। मैं केवल डाक्टर साहब से यह पूछना चाहता था कि भाई साहब के लिए अब क्या करना चाहिए?

डाक्टर ने कहा––अब केवल एक ही साधन और है। इन्हें इटली के किसी सैनेटोरियम में भेज देना चाहिए।

चैतन्यदास ने सजग होकर पूछा––कितना खर्च होगा?

'ज्यादा से ज्यादा तीन हजार। साल भर रहना होगा।'

'निश्चय है कि वहाँ से अच्छे होकर आवेंगे?'

'जी नहीं। यह तो एक भयंकर रोग है, साधारण बीमारियों में भी कोई बात निश्चयरूप से नहीं कही जा सकती।'

'इतना खर्च करने पर भी वे वहाँ से ज्यों के त्यों लौट आये तो?'

'तो ईश्वर की इच्छा। आपको यह तसकीन हो जायगी कि इनके लिए मैं जो कुछ कर सकता था, कर दिया।'

आधी रात तक घर में प्रभुदास को इटली भेजने के प्रस्ताव पर वाद-विवाद होता रहा। चैतन्यदास का कथन था कि एक संदिग्ध फल के लिए तीन हजार का खर्च उठाना बुद्धिमत्ता के प्रतिकूल है। शिवदास भी उनसे सहमत था। किन्तु उसकी माता इस प्रस्ताव का बड़ी दृढ़ता के साथ अनुमोदन कर रही थीं। अन्त में माता की धिक्कारों का यह फल हुआ कि शिवदास लज्जित होकर उसके पक्ष में हो गया। बाबू साहब अकेले रह गये। तपेश्वरी ने तर्क से काम लिया। पति के सद्‌भावों को प्रज्वलित करने की चेष्टा की। धन की नश्वरता की लोकोक्तियाँ कहीं। इन शस्त्रों से विजय-लाभ न हुआ तो अश्रु-वर्षा करने लगीं। बाबू साहब जल-बिन्दुओं के इस शर-प्रहार के सामने न ठहर सके। इन शब्दों में हार स्वीकार की––अच्छा भाई, रोओ मत। जो कुछ तुम कहती हो वही होगा।

तपेश्वरी––तो कब?

'रुपये हाथ मे आने दो।'

'तो यह क्यों नहीं कहते कि भेजना ही नहीं चाहते?'

'भेजना चाहता हूँ किन्तु अभी हाथ खाली है। क्या तुम नहीं जानती?'

'बैंक में तो रुपये हैं? जायदाद तो है? दो-तीन हजार का प्रबन्ध करना ऐसा क्या कठिन है?'