पृष्ठ:गुप्त-धन 2.pdf/१०२

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बोहनी


उस दिन जब मेरे मकान के सामने सड़क की दूसरी तरफ एक पान की दुकान खुली तो मैं बाग-बाग़ हो उठा। इधर एक फर्लाग तक पान की कोई दुकान न थी और मुझे सड़क के मोड़ तक कई चक्कर करने पड़ते थे। कभी वहाँ कई-कई मिनट तक दुकान के सामने खडा रहना पड़ता था। चौराहा है, गाहको की हरदम भीड रहती है। यह इन्तजार मुझको बहुत बुरा लगता था। पान की लत मुझे कब पड़ी और कैसे पड़ी, यह तो अब याद नही आता लेकिन अगर कोई बना-बनाकर गिलौरियाँ देता जाय तो शायद मैं कभी इनकार न करूँ। आमदनी का बड़ा हिस्सा नहीं तो छोटा हिस्सा जरूर पान की भेंट चढ़ जाता है। कई बार इरादा किया कि एक पानदान खरीद लूँ लेकिन पानदान खरीदना कोई खाला जी का घर नही है और फिर मेरे लिए तो हाथी खरीदने से किसी तरह कम नहीं। और मान लो जान पर खेलकर एक बार खरीद भी लूँ तो पानदान कोई परी की थैली तो नहीं कि इधर इच्छा हुई और गिलौरियाॅ निकल पड़ी। बाजार से पान लाना, दिन में पाॅच बार फेरना, पानी से तर करना, सड़े हुए टुकडों को तराशकर अलग करना क्या कोई आसान काम है। मैंने बड़े घरों की औरतों को हमेशा पानदान की देखभाल और प्रबन्ध मे ही व्यस्त पाया है। इतना सरदर्द उठाने की क्षमता होती तो आज मै भी आदमी होता। और अगर किसी तरह यह मुश्किल भी हल हो जाय तो सुपाड़ी कौन काटे? यहाँ तो सरौते की सूरत देखते ही कँपकँपी छूटने लगती है। जब कभी ऐसी ही कोई जरूरत आ पड़ी, जिसे टाला नहीं जा सकता, तो सिल पर बट्ठे से तोड लिया करता हूँ लेकिन सरौते से काम लूँ यह गैर-मुमकिन। मुझे तो किसी को सुपाड़ी काटते देखकर उतना आश्चर्य होता है जितना किसी को तलवार की धार पर नाचते देखकर। और मान लो यह मामला भी किसी तरह हल हो जाय, तो आखिरी मजिल कौन फ़तह करे। कत्था और चूना बराबर लगाना क्या कोई आसान काम है? कम से कम मुझे तो उसका ढग नहीं आता। जब इस मामले में वे लोग रोज़ ग़लतियाँ करते है जो इस कला में दक्ष