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पृष्ठ:गुप्त-धन 2.pdf/१०७

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बोहनी
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अपनी दुकान न उठा लाये। मेरे जी मे तो आया कि एक फटकार बताऊँ पर ज़बान इतनी बेमुरीवत न हो सकी। बोला--मेरा कुछ ठीक नहीं है, कब तक रहूँ, कब तक न रहूॅ। आज ही तबादला हो जाय तो भागना पड़े। तुम न इधर की रहो, न उधर की।

उसने हसरत-भरे लहजे में कहा--आप चले जायेगे तो मै भी चली जाऊँगी। अभी आज तो आप जाते नहीं।

'मेरा कुछ ठीक नहीं है।'

'तो मै रोज यहाॅ आकर बोहनी करा लिया करूॅगी।'

'इतनी दूर रोज आओगी?'

'हाँ चली आऊँगी। दो मील ही तो है। आपके हाथ की बोहनी हो जायगी। यह लीजिए गिलौरियाॅ लायी हूँ। बोहनी तो करा दीजिए।'

मैने गिलौरियाॅ ली, पैसे दिये और कुछ गश की-सी हालत मे ऊपर जाकर चारपाई पर लेट गया।

अब मेरी अक्ल कुछ काम नहीं करती कि इस मुसीबत से क्योकर गला छुडाऊॅ। तब से इसी फिक्र में पड़ा हुआ हूॅ। कोई भागने की राह नज़र नहीं आती। सुर्खरू भी रहना चाहता हूँ, बेमुरौवती भी नहीं करना चाहता और इस मुसीबत से छुटकारा भी पाना चाहता हूॅ। अगर कोई साहब मेरी इस करुण स्थिति पर मुझे ऐसा कोई उपाय बतला दें तो जीवन भर उनका कृतज्ञ रहूॅगा।

—'प्रेमचालीसी' से