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तिरसूल


अँधेरी रात है, मूसलाधार पानी बरस रहा है। खिड़कियों पर पानी के थप्पड़ लग रहे है। कमरे की रोशनी खिड़की से बाहर जाती है तो पानी की बड़ी-बड़ी बूँदें तीरों की तरह नोकदार, लम्बी, मोटी, गिरती हुई नज़र आ जाती है। इस वक्त अगर घर में आग भी लग जाय तो शायद मै बाहर निकलने की हिम्मत न करूँ। लेकिन एक दिन था जब ऐसी ही अँधेरी भयानक रात के वक़्त मैं मैदान में बन्दूक लिये पहरा दे रहा था। उसे आज तीस साल गुजर गये। उन दिनों मैं फ़ौज में नौकर था। आह! वह फौजी ज़िन्दगी कितने मजे से गुजरती थी। मेरी ज़िन्दगी की सबसे मीठी, सबसे सुहानी यादगारे उसी जमाने से जुड़ी हुई है। आज मुझे इस अँधेरी कोठरी में अखबारों के लिए लेख लिखते देखकर कौन समझेगा कि इस नीमजान, झुकी हुई कमरवाले खस्ताहाल आदमी मे भी कभी हौसला और हिम्मत और जोश का दरिया लहरे मारता था। क्या-क्या दोस्त थे जिनके चेहरों पर हमेशा मुस्कराहट नाचती रहती थी। शेरदिल रामसिंह और मीठे गलेवाले देवीदास की याद क्या कभी दिल से मिट सकती है? वह वदन, वह बसरा, वह मित्र, सब आज मेरे लिए सपने है। यथार्थ हैं तो यह तंग कमरा और अखबार का दफ़्तर।

हॉ, ऐसी ही अँधेरी डरावनी सुनसान रात थी। मैं बारक के सामने बरसाती पहने हुए खडा मैग्ज़ीन का पहरा दे रहा था। कंधे पर भरा हुआ राइफ़ल था। बारक मे से दो-चार सिपाहियों के गाने की आवाजे आ रही थी। रह-रहकर जब बिजली चमक जाती थी तो सामने के ऊँचे पहाड और दरख्त और नीचे का हरा-भरा मैदान इस तरह नजर आ जाते थे जैसे किसी बच्चे की बड़ी-बड़ी काली भोली पुतलियो मे खुशी की झलक नजर आ जाती है।

धीरे-धीरे बारिश ने तूफानी सूरत अख्तियार की। अधकार और भी अँधेरा, बादल की गरज और भी डरावनी और बिजली की चमक और भी तेज हो गयी। मालूम होता था प्रकृति अपनी सारी शक्ति से ज़मीन को तबाह कर देगी।

यकायक मुझे ऐसा मालूम हुआ कि मेरे सामने से किसी चीज़ की परछाईसी निकल गयी। पहले तो मुझे खयाल हुआ कि कोई जगली जानवर होगा लेकिन