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तिरसूल
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लुईसा बोल उठी--सन्तरी।

विनती का एक शब्द भी उसके मुँह से न निकला। वह अब निराशा की उस सीमा पर पहुॅच चुकी थी जब आदमी की वाक्शक्ति अकेले शब्दो तक सीमित हो जाती है। मैने सहानुभूति के स्वर मे कहा--बड़ा मुश्किल मामला है।

'सन्तरी, मेरी इज्जत बचा लो। मेरे सामर्थ्य मे जो कुछ है वह तुम्हारे लिए करने को तैयार हूँ।'

मैने स्वाभिमानपूर्वक कहा--मिस लुईसा, मुझे लालच न दीजिए, मैं लालची नहीं हूँ। मैं सिर्फ इसलिए मजबूर हूँ कि फ़ौजी कानून को तोड़ना एक सिपाही के लिए दुनिया में सबसे बड़ा जुर्म है।

'क्या एक लडकी के सम्मान की रक्षा करना नैतिक कानून नही है? क्या फ़ौजी कानून नैतिक कानून से भी बड़ा है?' लुईसा ने जरा जोश मे भरकर कहा।

इस सवाल का मेरे पास क्या जवाब था। मुझसे कोई जवाब न बन पड़ा। फ़ौजी कानून अस्थायी, परिवर्तनशील होता है, परिवेश के आधीन होता है। नैतिक क़ानून अटल और सनातन होता है, परिवेश से ऊपर। मैंने कायल होकर कहा--जाओ मिस लुईसा, तुम अब आजाद हो, तुमने मुझे लाजवाब कर दिया। मैं फौजी क़ानून तोड़कर इस नैतिक कर्तव्य को पूरा करूँगा। मगर तुमसे केवल यही प्रार्थना है कि आगे फिर कभी किसी सिपाही को नैतिक कर्तव्य का उपदेश न देना क्योंकि फौजी कानून में वह भी जुर्म है। फ़ौजी आदमी के लिए दुनिया में सबसे बडा कानून फौजी कानून है। फ़ौज किसी नैतिक, आत्मिक या ईश्वरीय कानून की परवाह नहीं करती।

लुईसा ने फिर मेरा हाथ पकड लिया और एहसान में डूबे हुए लहजे मे बोली--सन्तरी, भगवान तुम्हे इसका फल दे।

मगर फ़ौरन उसे सदेह हुआ कि शायद यह सिपाही आइन्दा किसी मौके पर यह भेद न खोल दे इसलिए अपने और भी इत्मीनान के खयाल से उसने कहा--मेरी आबरू अब तुम्हारे हाथ है।

मैने विश्वास दिलानेवाले ढंग से कहा--मेरी ओर से आप बिलकुल इत्मीनान रखिए।

'कभी किसी से नहीं कहोगे न?'

'कभी नहीं।'

'कभी नहीं?'