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पृष्ठ:गुप्त-धन 2.pdf/१२१

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तिरसूल
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वादा करके भी वह अपनी भावनाओ पर विजय न पा सकी थी। शायद इसी गम मे कुढ़-कुढ़कर उसकी यह हालत हो गयी थी। एक दिन मैंने उससे कहा--लुईसा, मुझे ऐसा खयाल होता है कि शायद तुम अपने पुराने प्रेमी को भूल नहीं सकी। अगर मेरा यह खयाल ठीक है तो मैं उस वादे से तुमको मुक्त करता हूँ। तुम शौक से उसके साथ शादी कर लो। मेरे लिए यही इत्मीनान काफ़ी होगा कि मै दिन रहते घर आ गया। मेरी तरफ़ से अगर कोई मलाल हो तो उसे निकाल डालो।

लुईसा की बड़ी-बड़ी आँखों से ऑसू की बूँदे टपकने लगी। बोली--वह अब इस दुनिया में नहीं है किरपिन, आज छ: महीने हुए वह फ्रांस में मारे गये। मैं ही उनकी मौत का कारण हुई--यही गम है। फ़ौज से उनका कोई सम्बन्ध न था। अगर वह मेरी ओर से निराश न हो जाते तो कभी फौज मे भर्ती न होते। मरने ही के लिए बह फौज में गये। मगर तुम अब आ गये, मै बहुत जल्द अच्छी हो जाऊँगी। अब मुझमें तुम्हारी बीवी बनने की काबलियत ज्यादा हो गयी। तुम्हारे पहलू में अब कोई कॉटा नहीं रहा और न मेरे दिल में कोई गम।

इन शब्दों में व्यंग भरा हुआ था, जिसका आशय यह था कि मैने लुईसा के प्रेमी की जान ली। इसकी सच्चाई से कौन इनकार कर सकता है। इसके प्रायश्चित्त की अगर कोई सूरत थी तो यही कि लुईसा की इतनी खातिरदारी, इतनी दिलजोई करूँ, उस पर इस तरह न्योछावर हो जाऊँ कि उसके दिल से यह दुख निकल जाय।

इसके एक महीने बाद शादी का दिन तय हो गया। हमारी शादी भी हो गयी। हम दोनो घर आये। दोस्तों की दावत हुई। शराब के दौर चले। मैं अपनी खुशनसीबी पर फूला नहीं समाता था और मैं ही क्यों मेरे इष्ट-मित्र सब मेरी खुशकिस्मती पर मुझे बधाई दे रहे थे।

मगर क्या मालूम था तकदीर मुझे यों सब्ज़ बाग़ दिखा रही है, क्या मालूम था कि यह वह रास्ता है, जिसके पीछे जालिम शिकारी का जाल बिछा हुआ है। मैं तो दोस्तों की खातिर-तवाज़ो मे लगा हुआ था, उधर लुईसा अन्दर कमरे में लेटी हुई इस दुनिया से रुखसत होने का सामान कर रही थी। मैं एक दोस्त की बधाई का धन्यवाद दे रहा था कि राजर्स ने आकर कहा--किरपिन, चलो लुईसा तुम्हें बुला रही है। जल्द। उसकी न जाने क्या हालत हो रही है। मेरे पैरों तले से ज़मीन खिसक गयी। दौड़ा हुआ लुईसा के कमरे मे आया।

कप्तान नाक्स की ऑखों से फिर ऑसू बहने लगे, आवाज फिर भारी हो गयी। ज़रा दम लेकर उन्होंने कहा--अन्दर जाकर देखा तो लुईसा कोच पर लेटी हुई