को पटखनी दी, हाकी मैच में किस तरह अकेले गोल कर लिया, कि इतने में सूबेदार साहब देव की तरह आकर खडे हो गये और बड़े लडके से बोले--अरे सुनो, तुम यहाँ बैठे क्या कर रहे हो। बाबू जी शहर से आये है, इन्हें ले जाकर जरा जगल की सैर करा लाओ। कुछ शिकार-विकार खिलाओ। यहाँ ठेठर-वेठर तो है नहीं, इनका जी घबराता होगा। वक़्त भी अच्छा है, शाम तक लौट आओगे।
शिकार का नाम सुनते ही गजेन्द्र सिंह की नानी मर गयी। बेचारे ने उम्र भर कभी शिकार न खेला था। यह देहाती उजड्ड लौड़े उसे न जाने कहाॅ-कहाँ दौड़ायेगे, कही किसी जानवर का सामना हो गया तो कही के न रहे। कौन जाने हिरन ही चोट कर बैठे। हिरन भी तो भागने की राह न पाकर कभी-कभी पलट पडता है। कही भेडिया निकल आये तो काम ही तमाम कर दे। बोले--मेरा तो इस वक़्त शिकार खेलने को जी नहीं चाहता, बहुत थक गया हूँ।
सूबेदार साहब ने फरमाया--तुम घोडे पर सवार हो लेना। यही तो देहात की बहार है। चुन्नू, जाकर बन्दूक ला, मै भी चलूँगा। कई दिन से बाहर नहीं निकला। मेरा राइफल भी लेते आना।
चुन्नू और मुन्नू खुश-खुश बन्दूक लेने दौडे, इधर गजेन्द्र की जान सूखने लगी। पछता रहा था कि नाहक इन लौडो के साथ गप-शप करने लगा। जानता कि यह बला सिर पर आनेवाली है, तो आते ही फौरन बीमार बनकर चारपाई पर पड रहता। अब तो कोई हीला भी नहीं कर सकता। सबसे बड़ी मुसीबत घोड़े की सवारी। देहाती घोड़े यों ही थान पर बँधे-बँधे टर्रे हो जाते है और आसन का कच्चा सवार देखकर तो वह और भी शोखियाँ करने लगते है। कही अलफ़ हो गया या मुझे लेकर किसी नाले की तरफ बेतहाशा भागा तो खैरियत नही।
दोनो साले बन्दुके लेकर आ पहुँचे। घोडा भी खिंचकर आ गया। सूबेदार साहब शिकारी कपडे पहन कर तैयार हो गये। अब गजेन्द्र के लिए कोई हीला न रहा। उसने घोड़े की तरफ कनखियों से देखा--बार-बार जमीन पर पैर पटकता था, हिनहिनाता था, उठी हुई गर्दन, लाल ऑखे, कनौतियाॅ खडी, बोटी बोटी फड़क रही थी। उसकी तरफ देखते हुए डर लगता था। गजेन्द्र दिल में सहम उठा मगर बहादुरी दिखाने के लिए घोड़े के पास जाकर उसके गर्दन पर इस तरह थपकियाँ दी कि जैसे पक्का शहसवार है, और बोला--जानवर तो जानदार है मगर मुनासिब नहीं मालूम होता कि आप लोग तो पैदल चले और मैं घोड़े पर बैठूँ। ऐसा कुछ बहुत थका नहीं हूँ। मै भी पैदल ही चलूँगा, इसका मुझे अभ्यास है।