सूबेदार ने कहा--बेटा, जगल दूर है, थक जाओगे। बडा सीधा जानवर है, बच्चा भी सवार हो सकता है।
गजेन्द्र ने कहा--जी नही, मुझे भी यों ही चलने दीजिये। गप-शप करते हुए चले चलेगे। सवारी मे वह लुत्फ कहाँ। आप बुजुर्ग है, सवार हो जायँ।
चारों आदमी पैदल चले। लोगो पर गजेन्द्र की इस नम्रता का बहुत अच्छा असर हुआ। सभ्यता और सदाचार तो शहरवाले ही जानते है। तिस पर इल्म की बरकत।
थोडी दूर के बाद पथरीला रास्ता मिला। एक तरफ़ हरा भरा मैदान, दूसरी तरफ पहाड़ का सिलसिला। दोनों ही तरफ बबूल, करील, करौदे और ढाक के जगल थे। सूबेदार साहब अपनी फौजी जिन्दगी के पिटे हुए किस्से कहते चले आते थे। गजेन्द्र तेज चलने की कोशिश कर रहा था। लेकिन बार-बार पिछड जाता था। और उसे दो-चार कदम दौडकर उनके बराबर होना पड़ता था। पसीने से तर हॉफता हुआ, अपनी बेवकूफी पर पछताता चला जाता था। यहाँ आने की ज़रूरत ही क्या थी, श्यामदुलारी महीने दो महीने में जाती हो। मुझे इस वक़्त कुत्तों की तरह दौड़ते आने की क्या जरूरत थी। अभी से यह हाल है। शिकार नज़र आ गया तो मालूम नहीं क्या आफत आयेगी। मील-दो मील की दौड़ तो उनके लिए मामूली बात है मगर यहाँ तो कचूमर ही निकल जायगा। शायद बेहोश होकर गिर पडूँ। पैर अभी से मन-मन भर के हो रहे थे।
यकायक रास्ते मे सेमल का एक पेड नजर आया। नीचे लाल-लाल फूल बिछे हुए थे, ऊपर सारा पेड गुलनार हो रहा था। गजेन्द्र वहीं खड़ा हो गया और उस पेड़ को मस्ताना निगाहो से देखने लगा।
चुन्नू ने पूछा--क्या है जीजा जी, रुक कैसे गये?
गजेन्द्र सिंह ने मुग्ध भाव से कहा--कुछ नही, इस पेड का आकर्षक सौन्दर्य देखकर दिल बाग-बाग हुआ जा रहा है। अहा, क्या बहार है, क्या रौनक है, क्या शान है कि जैसे जगल की देवी ने गोधूलि के आकाश को लज्जित करने के लिए केसरिया जोडा पहन लिया हो या ऋषियो की पवित्र आत्माएँ अपनी शाश्वत यात्रा मे यहाॅ आराम कर रही हो, या प्रकृति का मधुर सगीत मूर्तिमान होकर दुनिया पर मोहिनी मत्र डाल रहा हो! आप लोग शिकार खेलने जाइए, मुझे इस अमृत तृप्त होने दीजिए।
दोनों नौजवान आश्चर्य से गजेन्द्र का मुँह ताकने लगे। उनकी समझ ही
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