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गुप्त धन
 

में न आया कि यह महाशय कह क्या रहे हैं। देहात के रहनेवाले जगलों मे घूमनेवाले सेमल उनके लिए कोई अनोखी चीज न थी। उसे रोज देखते थे, कितनी ही बार उस पर चढ़े थे, उसके नीचे दौड़े थे, उसके फूलो की गेद बनाकर खेले थे, उन पर यह मस्ती कभी न छायी थी, सौन्दर्य का उपभोग करना बेचारे क्या जाने।

सूबेदार साहब आगे बढ़ गये थे। इन लोगो को ठहरा हुआ देखकर लौट आये और बोले--क्यों बेटा, ठहर क्यों गये?

गजेन्द्र ने हाथ जोडकर कहा--आप लोग मुझे माफ कीजिए, मै शिकार खेलने न जा सकूॅगा। फूलों की यह बहार देखकर मुझपर मस्ती-सी छा गयी है, मेरी आत्मा स्वर्ग के संगीत का मजा ले रही है। अहा, यह मेरा ही दिल है जो फूल बनकर चमक रहा है। मुझमे भी वही लाली है, वही सौन्दर्य है, वही रस है। मेरे हृदय पर केवल अज्ञान का पर्दा पड़ा हुआ है। किसका शिकार करे? जंगल के मासूम जानवरो का? हमी तो जानवर है, हमी तो चिड़ियाँ है, यह हमारी ही कल्पनाओं का दर्पण है जिसमें भौतिक ससार की झलक दिखायी पड़ रही है। क्या अपना ही खून करे? नही, आप लोग शिकार खेलने जायें, मुझे इस मस्ती और बहार मे डूबकर इसका आनन्द उठाने दे। बल्कि मै तो प्रार्थना करूँगा कि आप भी शिकार से दूर रहें। जिन्दगी खुशियो का खजाना है। उसका खून न कीजिए। प्रकृति के दृश्यों से अपने मानस-चक्षुओं को तृप्त कीजिए। प्रकृति के एक-एक कण मे एक-एक फूल में, एक-एक पत्ती मे इसी आनन्द की किरणे चमक रही है। खून करके आनन्द के इस अक्षय स्रोत को अपवित्र न कीजिए।

इस दार्शनिक भाषण ने सभी को प्रभावित कर दिया। सूबेदार साहब ने चुन्नू से धीमे से कहा--उम्र तो कुछ नही है लेकिन कितना ज्ञान भरा हुआ है! चुन्नू ने भी अपनी श्रद्धा को व्यक्त किया--विद्या से आत्मा जाग जाती है, शिकार खेलना है बुरा।

सूबेदार साहब ने ज्ञानियो की तरह कहा--हाँ बुरा तो है चलो लौट चलें। जब हरेक चीज़ मे उसी का प्रकाश है, तो शिकारी कौन और शिकार कौन, अब कभी शिकार न खेलूँगा।

फिर वह गजेन्द्र से बोले--भइया, तुम्हारे उपदेश ने हमारी आँखें खोल दी। कसम खाते है, अब कभी शिकार न खेलेगे।

गजेन्द्र पर मस्ती छाई हुयी थी, उसी नशे की हालत मे बोला--ईश्वर को लाख लाख धन्यवाद है कि उसने आप लोगों को यह सुबुद्धि दी। मुझे खुद शिकार