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पुत्र-प्रेम
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बाबू चैतन्यदास सिर झुकाये ये बातें सुन रहे थे। एक-एक शब्द उनके हृदय में शर के समान चुभता जाता था। इस उदारता के प्रकाश में उन्हें अपनी हृदय-हीनता, अपनी आत्मशून्यता, अपनी भौतिकता अत्यन्त भयकर दिखायी देती थी। उनके चित्त पर इस घटना का कितना प्रभाव पड़ा, यह इसी से अनुमान किया जा सकता है कि प्रभुदास के अन्त्येष्टि संस्कार में उन्होंने हज़ारों रुपये खर्च कर डाले। उनके सन्तप्त हृदय की शान्ति के लिए अब एकमात्र यही उपाय रह गया था।
––सरस्वती, जून १९२०