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गुप्त धन
 

ओ बदरबा लोयलाय, बाल उखाडूँ टोयटाय।
ओ बदर तेरा मुँह है लाल, पिचके-पिचके तेरे गाल।

मर गई नानी बदर की,
टूटी टाँग मुछंदर की।

मन्नू को इस शोर-गुल मे बडा आनन्द आ रहा था। वह आधे फल खा-खाकर नीचे गिराता था और लड़के लपक-लपककर चुन लेते और लालियाँ बजा-बजाकर कहते थे--

बंदर मामू और,
कहाँ तुम्हारा ठौर।

माली ने जब देखा कि यह विप्लव शात होने नही आता, तो जाकर अपने स्वामी को खबर दी। वह हजरत पुलिस विभाग के कर्मचारी थे। सुनते ही जामे से बाहर हो गये। बदर की इतनी मजाल कि मेरे बगीचे मे आकर ऊधम मचावे। बँगले का किराया मैं देता हूँ, कुछ बदर नहीं देता। यहाॅ कितने ही असहयोगियो को लदवा दिया, अखबारवाले मेरे नाम से कॉपते है, बदर की क्या हस्ती है! तुरन्त बन्दूक उठायी, और बगीचे मे आ पहुँचे। देखा मन्नू एक पेड को जोर-जोर से हिला रहा है। लाल हो गये, और उसकी तरफ बन्दुक तानी। बन्दूक देखते ही मन्नू के होश उड गये। उस पर आज तक किसी ने बन्दूक नहीं तानी थी। पर उसने बन्दूक को आवाज सुनी थी, चिड़ियों को मारे जाते देखा था और न देखा होता तो भी बन्दूक से उसे स्वाभाविक भय होता। पशु-बुद्धि अपने शत्रुओं से स्वतः सशक हो जाती है। मन्नू के पाँव मानों सुन्न हो गये। वह उछलकर किसी दूसरे वृक्ष पर भी न जा सका। उसी डाल पर दबककर बैठ गया। साहब को उसकी यह कला पसन्द आयी, दया आ गयी। माली को भेजा, जाकर बन्दर को पकड़ ला। माली दिल मे तो डरा, पर साहब के गुस्से को जानता था, चुपके से वृक्ष पर चढ़ गया और हजरत बदर को एक रस्सी में बाँध लाया। मन्नू साहब के बरामदे मे एक खम्भे से बाॅध दिया गया। उसकी स्वच्छन्दता का अन्त हो गया। सन्ध्या तक वही पड़ा हुआ करुण स्वर मे कूँ-कूँ करता रहा। सॉझ हो गयी तो एक नौकर उसके सामने एक मुट्ठी चने डाल गया। अब मन्नू को अपनी स्थिति के परिवर्तन का ज्ञान हुआ। न कम्बल, न टाट, ज़मीन पर पडा बिसूर रहा था। चने उसने छुए भी नहीं। पछता रहा था कि कहाँ से कहाँ फल खाने निकला।