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सैलानी बंदर
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कमरे से बाहर निकल आये और मन्नू के कई ठोकरे लगायी। नौकर को आज्ञा दी कि इस बदमाश को तीन दिन तक कुछ खाने को मत दो।

सयोग से उसी दिन एक सर्कस कपनी का मैनेजर साहब से तमाशा करने की आज्ञा लेने आया। उसने मन्नू को बँधे, रोनी सूरत बनाये बैठे देखा, तो पास आकर उसे पुचकारा। मन्नू उछलकर उसकी टाँगो से लिपट गया, और उसे सलाम करने लगा। मैनेजर समझ गया कि यह पालतू जानवर है। उसे अपने तमाशे के लिए एक बन्दर की ज़रूरत थी। साहब से बातचीत की, उसका उचित दिया, और अपने साथ ले गया। किन्तु मन्नू को शीघ्र ही विदित हो गया कि यहाँ मैं और भी बुरा फॅसा। मैनेजर ने उसे बदरो के रखवाले को सौप दिया। रखवाला बडा निष्ठुर और क्रूर प्रकृति का प्राणी था। उसके अधीन और भी कई बन्दर थे। सभी उसके हाथो कष्ट भोग रहे थे। वह उनके भोजन की सामग्री खुद खा जाता था। अन्य बन्दरों ने मन्नू का सहर्ष स्वागत नहीं किया। उसके आने से उनमे बड़ा कोलाहल मचा। अगर रखवाले ने उसे अलग न कर दिया होता तो वे सब उसे नोचकर खा जाते। मन्नू को अब नयी विद्या सीखनी पड़ी। पैरगाडी पर चढ़ना, दौडते घोडे की पीठ पर दो टॉगो से खड़े हो जाना, पतली रस्सी पर चलना इत्यादि बड़ी ही कष्टप्रद साधनाएँ थी। मन्नू को ये सब कौशल सीखने मे बहुत मार खानी पड़ती। जरा भी चूकता तो पीठ पर डंडा पड़ जाता। उससे अधिक कष्ट की बात यह थी कि उसे दिन भर एक कठघरे में बन्द रक्खा जाता था, जिसमे कोई उसे देख न ले। मदारी के यहाँ भी उसे तमाशा ही दिखाना पड़ता था किन्तु उस तमाशे और इस तमाशे में बड़ा अंतर था। कहाॅ वे मदारी की मीठी-मीठी वाते, उसका दुलार और प्यार और कहाॅ यह कारावास और डडों की भार! ये काम सीखने मे उसे इसलिए और भी देर लगती थी कि वह अभी तक जीवनदास के पास भाग जाने के विचार को भूला न था। नित्य इसी ताक में रहता कि मौका पाऊॅ और निकल जाऊॅ। लेकिन वहाॅ जानबरों पर बड़ी कड़ी निगाह रखी जाती थी। बाहर की हवा तक न मिलती थी, भागने की तो बात ही क्या! काम लेनेवाले सब थे, मगर भोजन की खबर लेनेवाला कोई भी न था। साहब की क़ैद से तो मनू जल्द ही छूट गया था, लेकिन इस क़ैद मे तीन महीने बीत गये। शरीर घुल गया, नित्य चिन्ता धेरे रहती थी, पर भागने का कोई ठीक-ठिकाना न था। जी चाहे या न चाहे, उसे काम अवश्य करना पड़ता था। स्वामी को पैसो से काम था, वह जिये चाहे मरे।