नबी का नीति-निर्वाह
हजरत मुहम्मद को इलहाम हुए थोडे ही दिन हुए थे, दस-पाँच पडोसियां और निकट-सम्बन्धियों के सिवा अभी और कोई उनके दीन पर ईमान न लाया था। यहाँ तक कि उनकी लडकी जैनब और दामाद अबुलआस भी, जिनका विवाह इलहाम के पहले ही हो चुका था, अभी तक नये धर्म मे दीक्षित न हुए थे। जैनब कई बार अपने मैके गयी थी और अपने पिता के ज्ञानोपदेश सुने थे। वह दिल से इसलाम पर श्रद्धा रखती थी, लेकिन अबुलआस के कारण दीक्षा लेने का साहस न कर सकती थी। अबुलआस विचार-स्वातन्त्र्य का समर्थक था। वह कुशल
व्यापारी था। मक्के से खजूर, मेवे आदि जिन्से लेकर बन्दरगाहो को चालान किया करता था। बहुत ही ईमानदार, लेन-देन का खरा, श्रमशील मनुष्य था, जिसे इहलोक से इतनी फुर्सत न मिलती थी कि परलोक की चिन्ता करे। जैनब के सामने कठिन समस्या थी, आत्मा धर्म की ओर थी, हृदय पति की ओर, न धर्म को छोड सकती थी, न पति को। घर के अन्य प्राणी मूर्तिपूजक थे और इस नये सम्प्रदाय के शत्रु। जैनब अपनी लगन को छुपाती रहती, यहाँ तक कि पति से भी अपनी व्यथा न कह सकती। वे धार्मिक सहिष्णुता के दिन न थे। बात-बात पर खून की नदियाँ बहती थी। खान्दान के खान्दान मिट जाते थे। अरब की अलौकिक वीरता पारस्परिक कलहों मे व्यक्त होती थी। राजनैतिक संगठन का नाम न था। खून का बदला खून, धनहानि का बदला खून, अपमान का बदला खून--मानव-रक्त ही से सभी झगड़ों का निबटारा होता था। ऐसी अवस्था मे अपने धर्मानुराग को प्रकट करना अबुलास के शक्तिशाली परिवार को मुहम्मद और उनके गिने-गिनाये अनुयायियों से टकराना था। उधर प्रेम का बन्धन पैरो को जकड़े हुए था। नये धर्म में प्रविष्ट होना अपने प्राण-प्रिय पति से सदा के लिए बिछुड़ जाना था। कुरैश जाति के लोग ऐसे मिश्रित विवाहों को परिवार के लिए कलंक समझते थे। माया और धर्म की दुविधा मे पड़ी हुई जैनब कुढ़ती रहती थी।
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धर्म का अनुराग एक दुर्लभ वस्तु है, किन्तु जब उसका वेग उठता है तब बडे