अबुल०--हर्गिज नहीं।
अबूसि०--तो क्या तुम भी मुसलमान हो जाओगे?
अबु०--हर्गिज नहीं।
अबूसि०--तो उसे मुहम्मद ही के घर रहना पडेगा।
अबु०--हर्गिज नहीं, आप मुझे आज्ञा दीजिए कि उसे अपने घर लाऊँ।
अबूसि०--हर्गिज नहीं।
अबु०--क्या यह नहीं हो सकता कि मेरे घर में रहकर वह अपने मतानुसार खुदा की बन्दगी करे?
अबूसि०--हर्गिज नहीं।
अबु०--मेरी कौम मेरे साथ इतनी भी सहानुभूति न करेगी?
अबूसि०--हर्गिज नहीं।
अबु०--तो फिर आप लोग मुझे अपने समाज से पतित कर दीजिए। मुझे पतित होना मंजूर है, आप लोग चाहे जो सजा दे वह सब मंजूर है। पर मैं अपनी बीवी को तलाक नहीं दे सकता। मैं किसी की धार्मिक स्वाधीनता का अपहरण नहीं करना चाहता, वह भी अपनी बीवी की।
अबूसि०--कुरैश मे क्या और लड़कियाँ नहीं है?
अबु०--जैनब की-सी कोई नहीं।
अबुसि०--हम ऐसी लड़कियाॅ बता सकते है जो चॉद को लज्जित कर दें।
अबु०--मैं सौन्दर्य का उपासक नहीं।
अबूसि०--ऐसी लड़कियाॅ दे सकता हूँ जो गृह-प्रबन्ध में निपुण हों, बातें ऐसी करे जो मुँह से फूल झरे, भोजन ऐसा बनाये कि बीमार को भी रुचि हो, और सीने-पिरोने में इतनी कुशल कि पुराने कपड़े को नया कर दे।
अबु०--मैं इन गुणों में किसी का भी उपासक नहीं। मै प्रेम और केवल प्रेम का भक्त हूँ और मुझे विश्वास है, कि जैनब का-सा प्रेम मुझे सारी दुनिया में नहीं मिल सकता।
अबूसि०--प्रेम होता तो तुम्हें छोड़कर दग़ा न करती।
अबु०--मैं नहीं चाहता कि प्रेम के लिए कोई अपने आत्मस्वातन्त्र्य का त्याग करे।
अबूसि०--इसका आशय यह है कि तुम समाज मे समाज के विरोधी बनकर