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इजत का खून
११
 

तुम्हारी मुहब्बत काफी है। यही मेरे लिए सबसे बड़ी नेमत है। मै अपनी हकीकत को मिटा देना चाहता हूँ। चाहता हूँ कि तुम्हारे दरवाजे का फ़कीर बनकर रहूँ। तुम मेरी नूरजहाँ बन जाओ, मै लुम्हारा सलीम बनूगा, और तुम्हारी मूंगे जैसी हथेली के प्यालो पर उम्र बसर करूँगा।

मेरी आँखे भर आयी। खुशियाँ अपनी चोटी पर पहुंचकर आँसू की बूंद बन गयी।

पर अभी पूरा साल भी न गुजरा था कि मुझे सईद के मिजाज मे कुछ तबदीली नजर आने लगी। हमारे दरमियान कोई लड़ाई-झगडा या बदमजगी न हुई थी। मगर अब वह सईद न था जिसे एक लमहे के लिए भी मेरी जुदाई दूभर थी। वह अब रात की रात गायब रहता। उसकी आँखों मे प्रेम की वह उभग न थी न अन्दाजों मे वह प्यास न मिजाज मे वह गर्मी।

कुछ दिनो तक इस रूखेपन ने मुझे खूब रुलाया। मुहब्बत के मजे याद आ-आकर तड़पा देते। मैंने पढ़ा था कि प्रेम अमर होता है, क्या वह स्रोत इतनी जल्दी सूख गया? आह, नही वह अब भी लहरे मार रहा था। पर अब उसका बहाव किसी दूसरी ओर था। वह अब किसी दूसरे चमन को शादाब करता था। आखिर मैं भी सईद से आँखे चुराने लगी। बेदिली से नहीं, सिर्फ इसलिए कि अब मुझे उससे ऑखे मिलाने की ताब न थी। उसे देखते ही मुहब्बत के हजारो करिश्मे नजरो के सामने आ जाते और आँखे भर आती। मेरा दिल अब भी उसकी तरफ खिंचता था, कभी-कभी बेअख्तियार जी चाहता कि उसके पैरो पर गिरूँ और कहूँ—मेरे दिलदार, यह बेरहमी क्यो? क्यों तुमने मुझसे मुंह फेर लिया है, मुझसे क्या खता हुई है? लेकिन इस स्वाभिमान का बुरा हो जो दीवार बनकर रास्ते में खड़ा हो जाता।

यहाँ तक कि धीरे-धीरे मेरे दिल मे भी मुहब्बत की जगह हसरत ने ले ली। निराशा के धैर्य ने दिल को तसकीन दी। मेरे लिए सईद अब बीते हुए बसन्त का एक भूला हुआ गीत था। दिल की गर्मी ठंडी हो गयी। प्रेम का दीपक बुझ गया। यही नही, उसकी इज्जत भी मेरे दिल से रुखसत हो गयी। जो आदमी प्रेम के पवित्र मन्दिर मे मैल से भरा हुआ हो वह हरगिज इस योग्य नही कि मैं उसके लिए घुलू और मरूँ।

एक रोज शाम के वक्त मै अपने कमरे मे पलग पर पड़ी एक किस्सा पढ़ रही थी,