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गुप्त धन
 


ज़ैन०--अगर तुम्हारा दिल तुम्हे मजबूर कर रहा है तो शौक से जाओ लेकिन मुझे भी साथ लेते चलो।

अबु०--अपने साथ?

जैन०--हाॅ, मैं वहाॅ आहत मुसलमानों की सेवा-शुश्रूषा करूॅगी।

अबु०--शौक से चलो।

घोर सग्राम हुआ। दोनों दलो ने खूब दिल के अरमान निकाले। भाई भाई से, मित्र मित्र से, बाप बेटे से लडा। सिद्ध हो गया कि धर्म का बन्धन रक्त और वीर्य के बन्धन से सुदृढ है।

दोनों दलवाले वीर थे। अन्तर यह था कि मुसलमानों मे नया धर्मानुराग था, मृत्यु के पश्चात् स्वर्ग की आशा थी, दिलो मे वह आत्मविश्वास था जो नवजात सम्प्रदायों का लक्षण है। विधर्मियो मे बलिदान का यह भाव लुप्त था।

कई दिन तक लडाई होती रही। मुसलमानो की संख्या बहुत कम थी, पर अन्त मे उनके धर्मोत्साह ने मैदान मार लिया। विधर्मियो में अधिकाश काम आये, कुछ घायल हुए और कुछ कैद कर लिये गये। अबुलआस भी इन्ही क़ैदियो मे थे।

जैनब को ज्योही यह मालूम हुआ उसने हजरत मुहम्मद की सेवा मे अबुलआस का फदिया (मुक्तिधन) भेजा। यह वही बहुमूल्य हार था, जो खुदैजा ने उसे दिया था। वह अपने पिता को उस धर्म-सकट मे न डालना चाहती थी जो मुक्ति-धन के अभाव की दशा मे उन पर पडता। हजरत ने यह हार देखा तो खुदैजा की याद ताजी हो गयी। मधुर स्मृतियो से चित्त चचल हो उठा। अगर खुदैजा जीवित होती तो उसकी सिफारिश का असर उन पर इससे ज्यादा न होता जितना इस हार से हुआ, मानो स्वय खुदैजा इस हार के रूप मे आयी थी। अबुलास के प्रति हृदय कोमल हो गया। उसे सजा दी गयी, यह हार ले लिया गया तो खुदैजा की आत्मा को कितना दुख होगा। उन्होने क़ैदियों का फैसला करने के लिए एक पचायत नियुक्त कर दी थी। यद्यपि पचो मे सभी हजरत के इष्ट-मित्र थे, पर इसलाम की शिक्षा उनके दिलों से पुरानी आदते, पुरानी चेष्टाएं न मिटा सकी थी। उनमें अधिकाश ऐसे थे जिनको अबुलआस से पारिवारिक द्वेष था, जो उनसे किसी पुराने खून का बदला लेना चाहते थे। इसलाम ने उनमें क्षमा और अहिंसा के भावों को