फ़ैसले में दखल देना नीति-विरुद्ध था। इससे इसलाम की मर्यादा भग होती थी। कठिन आत्मवेदना हुई। यहाॅ बैठे न रह सके। उठकर अन्दर चले गये। उन्हें ऐसा मालूम हो रहा था कि जैनब की गर्दन पर तलवार फेरी जा रही है। जैनब की दीन, करुणापूर्ण मूर्ति ऑखो के सामने खडी मालूम होती थी। पर मर्यादा, निर्दय, निष्ठुर मर्यादा यह बलिदान माॅग रही थी।
अबुलआस के सामने भी विषम समस्या थी। इधर गुलामी का अपमान था, उधर वियोग की दारुण वेदना थी।
अन्त में उन्होंने निश्चय किया, यह वेदना सहूँगा, अपमान न सहूँगा। प्रेम को गौरव पर समर्पित कर दूँगा। बोले--मुझे आपका फैसला मजूर है। जैनब मेरा फदिया होगी।
७
निश्चय किया गया कि जैद अबुलास के साथ जायॅ और आबादी से बाहर ठहरे। आस घर जाकर तुरन्त जैनब को वहाॅ भेज दें। आस पर इतना विश्वास था कि वे अपना बचन पूरा करेगे।
आस घर पहुॅचे तो जैनब उनसे गले मिलने दौड़ी। आस हट गये और कातर स्वर से बोले--नही जैनब, मै तुमसे गले न मिलूँगा। मै तुम्हे अपने फदिये के रूप मे दे आया। अब मेरा तुमसे कोई सम्बन्ध नहीं है। यह तुम्हारा हार है, ले लो, और फौरन यहाँ से चलने की तैयारी करो। जैद तुम्हे लेने को आये है।
जैनब पर वज्र-सा गिर पड़ा। पैर बॅध गये, वहीं चित्र की भाँति खड़ी रह गयी। वज्र ने रक्त को जला दिया, ऑसुओं को सुखा दिया, चेतना ही न रही, रोती और बिलखती क्या। एक क्षण के बाद उसने एक बार माथा ठोका--निर्दय तकदीर के सामने सिर झुका दिया। चलने को तैयार हो गयी। घोर नैराश्य इतना दुखदायी नही होता जितना हम समझते है। उसमे एक रसहीन शान्ति होती है। जहाँ सुख की आशा नहीं वहाँ दुख का कष्ट कहाँ!
मदीने में रसूल की बेटी की जितनी इज्जत होनी चाहिए उतनी होती थी। वह पितागृह की स्वामिनी थी। धन था, मान था, गौरव था, धर्म था, प्रेम न था। ऑख में सब कुछ था, केवल पुतली न थी। पति के वियोग मे रोया करती थी। ज़िन्दा थी मगर ज़िन्दा दरगोर। तीन साल तीन युगो की भॉति बीते। घण्टे, दिन और वर्ष साधारण व्यवहारो के लिए है, प्रेम के यहाॅ समय का माप कुछ और ही है।
उधर अबुलआस द्विगुण उत्साह के साथ धनोपार्जन मे लीन हुआ, महीनों