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मंदिर और मसजिद


चौधरी इतरतअली 'कड़े' के बड़े जागीरदार थे। उनके बुजुर्गों ने शाही जमाने में अंग्रेजी सरकार की बड़ी-बड़ी ख़िदमतें की थीं। उनके बदले में यह जागीर मिली थी। अपने सुप्रबन्ध से उन्होंने अपनी मिल्कियत और भी बढ़ा ली थी और अब उस इलाके में उनसे ज्यादा धनी-मानी कोई आदमी न था। अंग्रेज हुक्काम जब इलाके में दौरा करने जाते तो चौधरी साहब की मिज़ाजपुर्सी के लिए जरूर आते थे। मगर चौधरी साहब खुद किसी हाकिम को सलाम करने न जाते, चाहे वह कमिश्नर ही क्यों न हो। उन्होंने कचहरियों में न जाने का व्रत-सा कर लिया था। किसी इजलास-दरबार में भी न जाते थे। किसी हाकिम के सामने हाथ बाँधकर खड़ा होना और उसकी हर एक बात पर 'जी हुज़ूर' करना अपनी शान के खिलाफ समझते थे। वह यथासाध्य किसी मामले-मुकदमे में न पड़ते थे, चाहे अपना नुकसान ही क्यों न होता हो। यह काम सोलहो आने मुखतारो के हाथ में था, वे एक के सौ करें या सौ का एक। फारसी और अरबी के आलिम थे, शरा के बड़े पाबंद, सूद को हराम समझते, पाँचों वक्त की नमाज अदा करते, तीसों रोज़े रखते और नित्य कुरान की तलावत (पाठ) करते थे। मगर धार्मिक संकीर्णता कहीं छू तक नहीं गयी थी। प्रातःकाल गंगा-स्नान करना उनका नित्य का नियम था। पानी बरसे, पाला पड़े, पर पाँच बजे वह कोस भर चलकर गंगा तट पर अवश्य पहुँच जाते। लौटते वक्त अपनी चाँदी की सुराही गंगाजल से भर लेते और हमेशा गंगाजल पीते। गंगाजल के सिवा वह और कोई पानी पीते ही न थे। शायद कोई योगी-यती भी गंगाजल पर इतनी श्रद्धा न रखता होगा। उनका सारा घर, भीतर से बाहर तक, सातवें दिन गऊ के गोबर से लीपा जाता था। इतना ही नहीं, उनके यहाँ बगीचे में एक पण्डित बारहो मास दुर्गा पाठ भी किया करते थे। साधु-सन्यासियों का आदर-सत्कार तो उनके यहाँ जितनी उदारता और भक्ति से किया जाता था, उस पर राजों को भी आश्चर्य होता था। यो कहिए कि सदाव्रत चलता था। उधर मुसलमान फकीरों का खाना बावर्चीखाने में पकता था और कोई सौ-सवा सौ आदमी नित्य एक दस्तरख़ान पर खाते थे। इतना दान-पुण्य करने पर भी