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गुप्त धन
 

तभी अचानक एक सुन्दर स्त्री मेरे कमरे में आयी। ऐसा मालूम हुआ कि जैसे कमरा जगमगा उठा। रूप की ज्योति ने दरो-दीवार को रौशन कर दिया गोया अभी सफेदी हुई है। उसकी अलकृत शोभा, उसका खिला हुआ, फूल-जैसा लुभावना चेहरा, उसकी नशीली मिठास, किसकी तारीफ करूँ। मुझ पर एक रोब-सा छा गया। मेरा रूप का घमण्ड धूल में मिल गया। मैं आश्चर्य मे थी कि यह कौन रमणी है और यहाँ क्योकर आयी? बेअख्तियार उठी कि उससे मिलू और पूछू, कि सईद भी मुस्कराता हुआ कमरे मे आया। मैं समझ गयी कि यह रमणी उसकी प्रेमिका है। मेरा गर्व जाग उठा। मैं उठी जरूर पर शान से गर्दन उठाये हुए। आँखों में हुस्न के रोब की जगह घृणा का भाव आ बैठा। मेरी आँखो मे अब वह रमणी रूप की देवी नही, डसनेवाली नागिन थी। मै फिर चारपाई पर बैठ गयी और किताब खोलकर सामने रख ली। वह रमणी एक क्षण तक खडी मेरी तस्वीरों को देखती रही, तब कमरे से निकली, चलते वक्त उसने एक बार मेरी तरफ़ देखा, उसकी आँखों से अगारे निकल रहे थे जिनकी किरणों मे हिंस्र प्रतिशोध की लाली झलक रही थी। मेरे दिल में सवाल पैदा हुआ—सईद इसे यहाँ क्यो लाया? क्या मेरा घमण्ड तोड़ने के लिए?

जायदाद पर मेरा नाम था पर यह केवल एक भ्रम था, उस पर अधिकार पूरी तरह सईद का था। नौकर भी उसी को अपना मालिक समझते थे और अक्सर मेरे साथ दिठाई से पेश आते। मै सब के साथ जिन्दगी के दिन काट रही थी। जब दिल में उमगे न रही, तो पीडा क्यो होती?

सावन का महीना था, काली घटा छायी हुई थी, और रिमझिम बूंदें पड़ रही थीं। बागीचे पर हसरत का अंधेरा और सियाह दरख्तों पर जुगनुओ की चमक ऐसी मालूम होती थी कि जैसे उनके मुंह से चिनगारियों जैसी आहे निकल रही है। मैं देर तक हसरत का यह तमाशा देखती रही। कीड़े एक साथ चमकते थे और एक साथ बुझ जाते थे, गोया रोशनी की बाढ़े छूट रही है। मुझे भी झूला झूलने और गाने का शौक़ हुआ। मौसम की हालते हसरत के मारे हुए दिलों पर भी अपना जादू कर जाती है। बागीचे में एक गोल बँगला था। मैं उसमे आयी और बरामदे की एक कड़ी में झूला डलवाकर झूलने लगी। मुझे आज मालूम हुआ कि निराशा में भी एक आध्यात्मिक आनन्द होता है जिसका हाल उनको नहीं मालूम जिनकी इच्छाएँ पूर्ण हैं। मैं चाव से एक मल्हार गाने लगी। सावन विरह और शोक का ।