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मंदिर और मसजिद
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ठाकुर––नहीं हजूर, अपनी जान के खौफ से।

चौधरी साहब ने यह खबर सुनी, तो सन्नाटे में आ गये। अब क्या हो? अगर मुकदमे की पैरवी न की गयी तो ठाकुर का बचना मुश्किल है। पैरवी करते हैं, तो इसलामी दुनिया मे तहलका पड़ जाता है। चारों तरफ़ से फतवे निकलने लगेंगे। उधर मुसलमानों ने ठान ली कि इसे फाँसी दिलाकर ही छोड़ेंगे। आपस में चंदा किया गया। मुल्लाओं ने मसजिद में चंदे की अपील की, द्वार-द्वार झोली बाँधकर घूमे। इस पर कौमी मुकदमे का रंग चढ़ाया गया। मुसलमान वकीलों को नाम लूटने का मौका मिला। आसपास के जिलों से जिहाद मे शरीक होने के लिए आने लगे।

चौधरी साहब ने भी पैरवी करने का निश्चय किया, चाहे कितनी ही आफ़तें क्यों न सिर पर आ पड़ें। ठाकुर उन्हें इंसाफ की निगाह में बेकसूर मालूम होता था और बेकसूर की रक्षा करने में उन्हें किसी का खौफ न था। घर से निकल खड़े हुए और शहर में जाकर डेरा जमा दिया।

छः महीने तक चौधरी साहब ने जान लड़ाकर मुकदमे की पैरवी की। पानी की तरह रुपये बहाये, आँधी की तरह दौड़े। वह सब किया जो जिन्दगी में कभी न किया था, और न पीछे कभी किया। अहलकारों की खुशामदें की, वकीलों के नाज उठाये, हाकिमों को नज़रें दीं और ठाकुर को छुड़ा लिया। सारे इलाके में धूम मच गयी। जिसने सुना, दंग रह गया। इसे कहते है शराफत! अपने नौकर को फाँसी से उतार लिया।

लेकिन साम्प्रदायिक द्वेष ने इस सत्कार्य को और ही आँखो से देखा––मुसलमान झल्लाये, हिन्दुओं ने बगलें बजायी। मुसलमान समझे, इनकी रही-सही मुसलमानी भी गायब हो गयी। हिन्दुओं ने खयाल किया, अब इनकी शुद्धि कर लेनी चाहिए, इसका मौका आ गया। मुल्लाओं ने और जोर-शोर से तबलीग की हाँक लगानी शुरू की, हिन्दुओं ने भी संगठन का झंडा उठाया। मुसलमानों की मुसलमानी जाग उठी और हिन्दुओं का हिंदुत्व। ठाकुर के कदम भी इस रेले में उखड़ गये। मनचले थे ही, हिन्दुओं के मुखिया बन बैठे। जिन्दगी में कभी एक लोटा जल तक शिव को न चढ़ाया था, अब देवी-देवतों के नाम पर लठ चलाने के लिए उद्यत हो गये। शुद्धि करने को कोई मुसलमान न मिला, तो दो-एक चमारों ही की शुद्धि करा