लगे, इधर और जोर से बाजे बजने लगे। बात बढ़ गयी। एक मौलवी ने भजन सिंह को काफिर कह दिया। ठाकुर ने उसकी दाढ़ी पकड़ ली। फिर क्या था। सूरमा लोग निकल पड़े, मार-पीट शुरू हो गयी। ठाकुर हल्ला मारकर मसजिद में घुस गये, और मसजिद के अंदर मार-पीट होने लगी। यह नहीं कहा जा सकता कि मैदान किसके हाथ रहा। हिन्दू कहते थे, हमने खदेड़-खदेड़कर मारा, मुसलमान कहते थे, हमने वह मार मारी कि फिर सामने नहीं आयेंगे। पर इन विवादों के बीच में एक बात सब मानते थे, और वह थी ठाकुर भजनसिंह की अलौकिक वीरता। मुसलमानों का कहना था कि ठाकुर न होता तो हम किसी को जिन्दा न छोड़ते, हिन्दू कहते थे कि ठाकुर सचमुच महाबीर का अवतार है। इसकी लाठियों ने उन सबों के छक्के छुड़ा दिये।
उत्सव समाप्त हो चुका था। चौधरी साहब दीवानखाने में बैठे हुए हुक्का पी रहे थे। उनका मुख लाल था, त्यौरियाँ चढ़ी हुई थीं और आँखों से चिनगारियाँ सी निकल रही थी। 'खुदा का घर' नापाक किया गया! यह खयाल रह-रहकर उनके कलेजे को मसोसता था।
खुदा का घर नापाक किया गया! जालिमों को लड़ने के लिए क्या नीचे मैदान में जगह काफी न थी! खुदा के पाक घर में यह खून-खच्चर! मसजिद की यह बेहुरमती! मंदिर भी खुदा का घर है और मसजिद भी। मुसलमान किसी मंदिर को नापाक करने के लिए जिस सजा के लायक हैं, क्या हिन्दू मसजिद को नापाक करने के लिए उसी सज़ा के लायक नहीं?
और यह हरकत ठाकुर ने की! इसी कसूर के लिए तो उसने मेरे दामाद को कत्ल किया था। मुझे मालूम होता कि उसके हाथों ऐसा फेल होगा, तो उसे फाँसी पर चढ़ने देता। क्यों उसके लिए इतना हैरान, इतना बदनाम, इतना जेरबार होता। ठाकुर मेरा वफादार नौकर है। उसने बारहा मेरी जान बचायी है। मेरे पसीने की जगह खून बहाने को तैयार रहता है। लेकिन आज उसने खुदा के घर को नापाक किया है, और उसे इसकी सजा मिलनी चाहिए। इसकी सजा क्या है? जहन्नुम! जहन्नुम की आग के सिवा इसकी और कोई सजा नहीं है। जिसने खुदा के घर को नापाक किया, उसने खुदा की तौहीन की। खुदा की तौहीन!
सहसा ठाकुर भजनसिंह आकर खड़े हो गये।
चौधरी साहब ने ठाकुर को क्रोधोन्मत्त आँखों से देखकर कहा––तुम मसजिद में घुसे थे?