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गुप्त धन
 



भजनसिंह––सरकार, मौलवी लोग हम लोगों पर टूट पड़े।

चौधरी––मेरी बात का जवाब दो जी––तुम मसजिद में घुसे थे?

भजनसिंह––जब उन लोगों ने मसजिद के भीतर से हमारे ऊपर पत्थर फेंकना शुरू किया तब हम लोग उन्हें पकड़ने के लिए मसजिद में घुस गये।

चौधरी––जानते हो, मसजिद खुदा का घर है?

भजनसिंह––जानता हूँ हुजूर, क्या इतना भी नहीं जानता।

चौधरी––मसजिद खुदा का वैसा ही पाक घर है, जैसे मंदिर।

भजनसिंह ने इसका कुछ जबाब न दिया।

चौधरी––अगर कोई मुसलमान मंदिर को नापाक करने के लिए गर्दनज़दनी है तो हिन्दू भी मसजिद को नापाक करने के लिए गर्दनज़दनी है।

भजनसिंह इसका भी कुछ जवाब न दे सका। उसने चौधरी साहब को कभी इतने गुस्से में न देखा था।

चौधरी––तुमने मेरे दामाद को कत्ल किया, और मैंने तुम्हारी पैरवी की। जानते हो क्यों? इसलिए कि मैं अपने दामाद को उस सजा के लायक़ समझता था जो तुमने उसे दी। अगर तुमने मेरे बेटे को, या मुझी को, उस कसूर के लिए मार डाला होता तो मैं तुमसे खून का बदला न माँगता। वही कसूर आज तुमने किया है। अगर किसी मुसलमान ने मसजिद में तुम्हें जहन्नुम में पहुँचा दिया होता तो मुझे सच्ची खुशी होती। लेकिन तुम बेहयाओं की तरह वहाँ से बचकर निकल आये। क्या तुम समझते हो खुदा तुम्हें इस फेल की सजा न देगा? खुदा का हुक्म है कि जो उसकी तौहीन करे, उसकी गर्दन मार देनी चाहिए। यह हर एक मुसलमान का फर्ज है। चोर अगर सजा न पावे तो क्या वह चोर नहीं है? तुम मानते हो या नहीं कि तुमने खुदा की तौहीन की?

ठाकुर इस अपराध से इनकार न कर सके। चौधरी साहब के सत्संग ने हठधर्मी को दूर कर दिया था। बोले––हाँ साहब, यह कसूर तो हो गया।

चौधरी––इसकी जो सजा तुम दे चुके हो, वह सजा खुद लेने के लिए तैयार हो?

ठाकुर––मैंने जान-बूझकर तो दूल्हा मियाँ को नहीं मारा था।

चौधरी––तुमने न मारा होता, तो मैं अपने हाथों से मारता, समझ गये! अब मैं तुमसे खुदा की तौहीन का बदला लूँगा। बोलो मेरे हाथों चाहते हो या अदालत के हाथों। अदालत से कुछ दिनों के लिए सजा पा जाओगे। मैं क़त्ल करूंगा। तुम मेरे दोस्त हो, मुझे तुमसे मुतलक़ कीना नहीं है। मेरे दिल को कितना