रंज है, यह खुदा के सिवा और कोई नहीं जान सकता। लेकिन मैं तुम्हे क़त्ल करूँगा। मेरे दीन का यह हुक्म है।
यह कहते हुए चौधरी साहब तलवार लेकर ठाकुर के सामने खड़े हो गये। विचित्र दृश्य था। एक बूढ़ा आदमी, सिर के बाल पके, कमर झुकी, तलवार लिये एक देव के सामने खड़ा था। ठाकुर लाठी के एक ही वार से उनका काम तमाम कर सकता था। लेकिन उसने सिर झुका दिया। चौधरी के प्रति उसके रोमरोम में श्रद्धा थी। चौधरी साहब अपने दीन के इतने पक्के हैं, इसकी उसने कभी कल्पना तक न की थी। उसे शायद धोखा हो गया था कि यह दिल से हिंदू है। जिस स्वामी ने उसे फाँसी से उतार लिया, उसके प्रति हिंसा या प्रतिकार का भाव उसके मन में क्योंकर आता? वह दिलेर था, और दिलेरों की भाँति निष्कपट था। उसे इस समय क्रोध न था, पश्चात्ताप था। मरने का भय न था, दुख था।
चौधरी साहब ठाकुर के सामने खड़े थे। दीन कहता था––मारो। सज्जनता कहती थी––छोड़ो। दीन और धर्म में संघर्ष हो रहा था।
ठाकुर ने चौधरी का असमंजस देखा। गद्गद कंठ से बोला––मालिक, आपकी दया मुझ पर हाथ न उठाने देगी। अपने पाले हुए सेवक को आप मार नहीं सकते। लेकिन यह सिर आपका है, आपने इसे बचाया था, आप इसे ले सकते हैं, यह मेरे पास आपकी अमानत थी। वह अमानत आपको मिल जायगी। सबेरे मेरे घर किसी को भेजकर मँगवा लीजिएगा। यहाँ दूँगा, तो उपद्रव खड़ा हो जायगा। घर पर कौन जानेगा, किसने मारा। जो भूल-चूक हुई हो, क्षमा कीजिएगा।
यह कहता हुआ ठाकुर वहाँ से चला गया।
––माधुरी, अप्रैल १९२५