प्रेम-सूत्र
संसार मे कुछ ऐसे मनुष्य भी होते है जिन्हे दूसरों के मुख से अपनी स्त्री की सौदर्य-प्रशसा सुनकर उतना ही आनन्द होता है जितना अपनी कीर्ति की चर्चा सुनकर। पश्चिमी सभ्यता के प्रसार के साथ ऐसे प्राणियों की संख्या बढ़ती जा रही है। पशुपतिनाथ वर्मा इन्ही लोगों मे थे। जब लोग उनकी परम सुन्दरी स्त्री की तारीफ़ करते हुए कहते—ओहो! कितनी अनुपम रूप-राशि है, कितना अलौकिक सौन्दर्य है, तब वर्माजी मारे खुशी और गर्व के फूल उठते थे।
सन्ध्या का समय था। मोटर तैयार खडी थी। वर्माजी सैर करने जा रहे थे, किन्तु प्रभा जाने को उत्सुक नहीं मालूम होती थी। वह एक कुर्सी पर बैठी हुई कोई उपन्यास पढ रही थी।
वर्माजी ने कहा—तुम तो अभी तक बैठी पढ़ रही हो?
'मेरा तो इस समय जाने को जी नहीं चाहता।'
'नही प्रिये, इस समय तुम्हारा न चलना सितम हो जायगा। मैं चाहता हूँ कि तुम्हारी इस मधुर छवि को घर से बाहर भी तो लोग देखे।'
'जी नही, मुझे यह लालसा नहीं है। मेरे रूप की शोभा केवल तुम्हारे लिए है, और तुम्हीं को दिखाना चाहती हूँ।'
'नही, मै इतना स्वार्थान्ध नही हूँ। जब तुम सैर करने निकलो, मै लोगों से यह सुनना चाहता हूँ कि कितनी मनोहर छवि है! पशुपति कितना भाग्यशाली पुरुष है!'
'तुम चाहो, मै नहीं चाहती। तो इसी बात पर आज मै कही नही जाऊँगी। तुम भी मत जाओ। हम दोनो अपने ही बाग में टहलेगे। तुम हौज़ के किनारे हरी घास पर लेट जाना, मैं तुम्हें वीणा बजाकर सुनाऊँगी। तुम्हारे लिए फूलों का हार बनाऊँगी, चाँदनी में तुम्हारे साथ आँख-मिचौनी खेलूंगी।'
'नही नहीं प्रभा, आज हमें अवश्य चलना पड़ेगा। तुम कृष्णा से आज मिलने का वादा कर आयी हो। वह बैठी हमारा रास्ता देख रही होगी। हमारे न जाने से उसे कितना दुख होगा!'