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प्रेम-सूत्र
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हाय! वही कृष्णा! बार बार वही कृष्णा पति के मुख से नित्य यह नाम चिनगारी की भॉति उडकर प्रभा को जलाकर भस्म कर देता था।

प्रभा को अब मालूम हुआ कि आज ये बाहर जाने के लिए क्यों इतने उत्सुक है! इसीलिए आज इन्होने मुझसे केशों को संवारने के लिए इतना आग्रह किया था। वह सारी तैयारी उसी कुलटा कृष्णा से मिलने के लिए थी।

उसने दृढ स्वर में कहा—तुम्हे जाना हो जाओ, मैं न जाऊँगी।

वर्माजी ने कहा—अच्छी बात है, मै ही चला जाऊँगा।

पशुपति के जाने के बाद प्रभा को ऐसा जान पडा कि वह बाटिका उसे काटने दौड़ रही है। ईष्या की ज्वाला से उसका कोमल हृदय भस्म होने लगा। वे वहाँ कृष्णा के साथ बैठे विहार कर रहे होंगे—उसी नागिन के-से केशवाली कृष्णा के साथ, जिसकी आँखों मे घातक विष भरा हुआ है! मर्दो की बुद्धि क्यों इतनी स्थूल होती है? इन्हें कृष्णा की चटक-मटक ने क्यों इतना मोहित कर लिया है। उसके मुख से मेरे पैर का तलवा कही सुन्दर है। हाँ, मै एक बच्चे की माँ हूँ और वह नव- यौवना है ! जरा देखना चाहिए, उनमे क्या बात हो रही है।

यह सोचकर वह अपनी सास के पास आकर बोली—अम्माँ, इस समय अकेले जी घबराता है, चलिए कही धूम आवे।

सास, बहू पर प्राण देती थी। चलने पर राजी हो गयी। गाडी तैयार करा के दोनों धूमने चली। प्रभा का श्रृंगार देखकर भ्रम हो सकता था कि वह बहुत प्रसन्न है, किन्तु उसके अन्तस्तल में एक भीषण ज्वाला दहक रही थी, उसे छिपाने के लिए वह मीठे स्वर में एक गीत गाती जा रही थी।

गाडी एक सुरम्य उपवन मे उडी जा रही थी। सड़क के दोनों ओर विशाल वृक्षों की सुखद छाया पड़ रही थी। गाडी के कीमती घोडे गर्व से पूंछ और सिर उठाये टप-टप करते जा रहे थे। अहा! वह सामने कृष्णा का बॅगला आ गया, जिसके चारों ओर गुलाब की बेल लगी हुई थी। उसके फूल इस समय निर्दय काँटों की भॉति प्रभा के हृदय मे चुभने लगे। उसने उड़ती हुई निगाह से गले की ओर ताका। पशुपति का पता न था, हाँ कृष्णा और उसकी बहन माया बगीचे में विचर रही थीं। गाडी बंगले के सामने से निकल ही चुकी थी कि दोनों बहनों ने प्रभा को पुकारा और एक क्षण में दोनो बालिकाएँ हिरनियों की भाँति उछलती-कूदती फाटक की ओर दौडी। गाड़ी रुक गयी।